मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

 बदहाल अस्पताल, कंगाल होते मरीज



सरकार को अस्पतालों की सेहत में सुधार लाना है और देश के आम नागरिक के आर्थिक व सामाजिक हितों की रक्षा करनी है, तो उसे पूरे चिकित्सा तंत्र में बदलाव लाना होगा।

- जितेन्द्र बच्चन

हमारे संविधान में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है। सरकार बीच-बीच में लोक-लुभावनी घोषणाएं भी करती रहती है। इसके बावजूद देश का नागरिक स्वास्थ्य को लेकर सर्वाधिक प्रताड़ित है! तमाम सरकारी अस्पतालों की सेहत ठीक नहीं लगती। गरीबों के लिए जो सरकारी अस्पताल खोले गए हैं, उनमें से अधिकतर बीमार दिखते हैं। कहीं डॉक्टर नहीं मिलते तो कहीं विशेषज्ञ नहीं होते। भीड़ में जब तक मरीज डॉक्टर तक पहुंचता है, उनका देखने का समय खत्म हो चुका होता है। डाक्टर मिल भी जाते हैं तो दवा नहीं उपलब्ध होती। दवा होगी तो डॉक्टर साहब नहीं होते, बल्कि उनके स्थान पर कोई नर्स अथवा वार्डब्वाय काम कर रहा होता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं भारत अमृत काल में है। लेकिन 70 दशक बाद के हालात बताते हैं कि अस्पतालों में आज भी मरीजों की लंबी-लंबी कतारें लगती हैं। बहुत कुछ ऑनलाइन हो चुका है, फिर भी एम्स में ऑपरेशन के लिए तीन महीने बाद की डेट मिलती है। चिकित्सक अनुभवी और बड़े साहब के नाम से विख्यात हैं पर मरीज की नब्ज देखकर कुछ नहीं बताते। कहते हैं, ‘पहले टेस्ट कराओ फिर इलाज शुरू करेंगे।’ मतलब समझ गए न आप, सबकुछ जांच और टेस्ट रिपोर्ट पर निर्भर है। कहने को सरकारी अस्पताल है लेकिन पूरा भ्रष्टाचार है! परीक्षण या डाक्टर की फीस का कोई रेट फिक्स नहीं है। जिनती मर्जी होती है, मरीज से डॉक्टर वसूल लेता है। शायद इसीलिए अल्ट्रासाउंड की बात छोड़िए, सरकारी अस्पतालों में एक्स-रे मशीन तक खराब मिलती हैं।

डॉक्टरों की पैथोलॉजी और केमिस्ट के साथ पूरी साठ-गांठ होती है। डाक्टर दवा वही लिखता है जिसे लिखने के लिए दवा कंपनियां चिकित्सकों को महंगे तोहफे देती हैं। वह दवा अस्पताल में नहीं मिलेगी और बाहर से ली जाएगी तो केमिस्ट का बिल मरीज कर्ज लाकर चुकाए या घर-द्वार बेचे, साहब के कमीशन का एक हिस्सा पक्का रहता है। भारतीय कानून में यह अपराध है लेकिन कुछ डॉक्टरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तक कि सरकार की आयुष्मान योजना के तहत भी भ्रष्टाचार हो रहा है। कुछेक अस्पताल तो खूब चांदी काट रहे हैं।

लेकिन हम यहां सरकारी अस्पतालों की बात कर रहे हैं। जिन गरीबों के पास आयुष्मान कार्ड नहीं है, उनका मर्ज लाइलाज होता जा रहा है। गांव-देहात से शहर आकर बड़े अस्पतालों में इलाज कराने वाले मध्यम श्रेणी के लोगों की जमीन-जायदाद बिक जाती है। सरकारी डाक्टरों को अगर गांव-देहात में तैनाती दी जाती है तो वे कतई जाने को राजी नहीं होते। शहर की कमीशनखोरी उनके मुंह लग चुकी होती है। कई डॉक्टर तो नौकरी छोड़ने तक की धमकी दे देते हैं। हैरानी तो इस बात की है कि सरकार के पास भी इसका कोई बहुत अच्छा विकल्प नहीं है। वह चाहते हुए भी नफरमानी करने वाले डॉक्टर के खिलाफ कोई कार्यवाही शायद ही करती हो। अगर करे तो सामने सवाल खड़ा होता है- दूसरा डाक्टर कहां से आएगा?

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी)  के अनुसार, देश में डॉक्टर की जनसंख्या अनुपात 1:834 है। सरल शब्दों में कहें तो 834 मरीजों पर एक डॉक्टर और 476 लोगों पर केवल 1 नर्स है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होनी लाजिमी हैं। यही कारण है कि जांच में सरकारी स्तर पर दर निर्धारण का अधिकार जिला स्वास्थ्य अधिकारी को होता है फिर भी देश के अधिकांश जिलों में वर्षों से नई दरें लागू नहीं हुई हैं। इसके अलावा महंगी शिक्षा और निजी चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की अनैतिक वसूली का चक्रव्यूह भी इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार है। कई बार तो चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश को लेकर भी अनियमितताएं बरती जाती हैं! ऐसे में जब एक व्यक्ति डॉक्टर बनने के लिए लाखों रुपये खर्च कर चुका होता है तो महंगाई के इस युग में डॉक्टर बनने के बाद उससे सामाजिक होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सरकार को अस्पतालों की सेहत में सुधार लाना है और देश के आम नागरिक के आर्थिक व सामाजिक हितों की रक्षा करनी है, तो उसे पूरे चिकित्सा तंत्र में बदलाव लाना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी हैं।)


 बड़ा सवाल: बजट से पत्रकार वंचित क्यों?



सरकार बड़े गर्व से कहती है कि यह बजट विकास की ऊंची उड़ान भरता आमजन के कल्याण को समर्पित है। लेकिन इस संकल्प को साकार करने का माध्यम पत्रकार हमेशा सरकारी बजट से गायब रहता है। आखिर क्यों?

- जितेन्द्र बच्चन

सरकार कोई भी हो। केंद्र की हो या राज्य की, सभी अपने-अपने बजट को कल्याणकारी और विकासोन्मुख बताते हैं। करोड़ों की योजनाएं, गतिमान विकास, शिक्षा की हिस्सेदारी, सड़कों का जाल, स्वास्थ्य सेवाएं, महिला शक्तिकरण, कौशल विकास, युवाओं को रोजगार, सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता, किसानों को कर्ज में छूट, गरीबों को मुफ्त अनाज, अधिवक्ताओं को कल्याण निधि, पुलिस को प्रोत्साहन और विकास की ऊंची उड़ान! लेकिन पत्रकारों को क्या मिला? कुछ नहीं! आखिर ऐसा क्यों? कब तक पत्रकार उपेक्षित रहेंगे? क्यों पत्रकारों के प्रति सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती? जिसके बल पर सरकार अपना सिक्का चलाती है, उसी का अनादर और अनदेखी क्यों की जाती है?

अजीब दास्तान है, सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए ये नेता जिस पत्रकार को सीढ़ी बनाते हैं, वही मंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। चुनाव आते ही बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही मुंह मोड़ लेते हैं। हमारे देश में तमाम ऐसे उदाहरण है जब सरकारी उपेक्षा के चलते समाचार पत्र-पत्रिकाएं या न्यूज चैनल बंद हो चुके हैं और उससे जुड़े हजारों पत्रकार भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। इसके बावजूद केंद्र की सरकार हो या राज्य की, बजट में पत्रकारों के लिए कुछ नहीं करती। जो सरकार अपनी योजनाओं को समाज के जन-जन तक पहुंचाने के लिए पत्रकारों को एक मजबूत आधार मानती है और कई बार उसका इस्तेमाल भी करती है, वही उसे बजट से वंचित रखती है। एक पत्रकार और उसके परिवार के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा तक का बजट में कोई प्रावधान नहीं होता।

सरकार यह तो जानती है कि अखबार हो या न्यूज पोर्टल अथवा न्यूज चैनल, बिना इनके सहयोग के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। लोकतंत्र तभी कायम रहेगा जब हमारा चौथा स्तंभ मजबूत होगा। जो बजट वह पेश कर रही है, उसका प्रचार-प्रसार भी यही करेंगे, तब भी सरकार यह भूल जाती है कि अखबार और न्यूज चैनलों में पत्रकार ही काम करते हैं। वही पत्रकार जो सर्दी, गर्मी और बरसात में कई बार बिना तनख्वाह के दिन-रात चलते रहते हैं। समाज का कोई वर्ग विकास से वंचित न रह जाए, उससे जुड़ी एक-एक खबर के लिए गांव, गली-मुहल्ले और नगर-शहर की खाक छानते हैं। अपराध को उजागर करने के लिए जान जोखिम में डालते हैं। तकनीकि और कानूनी तौर पर खबर को पुख्ता करने के लिए अधिकारियों के चक्कर काटते हैं, जिसके लिए उन पत्रकारों (कुछ को छोड़कर) को कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिलता; उन्हीं पत्रकारों को अलग-अलग वर्ग (दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक या फिर मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त) में विभाजित कर सरकार उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करती है।

अभी हाल ही में केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने अपने-अपने बजट पेश किए हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बड़े गर्व से कहते हैं कि यह बजट विकास की ऊंची उड़ान भरता आमजन के कल्याण को समर्पित है। लेकिन हम जानना चाहते हैं कि इस संकल्प को साकार करने का माध्यम पत्रकार हमेशा सरकारी बजट से गायब क्यों रहता है? यह अन्याय और अनीति है। पत्रकारों के लिए बजट में कोई प्रावधान न होने से अधिकतर पत्रकारों के बच्चे जहां उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, वहीं आर्थिक तंगी के चलते बेहतर इलाज भी उन्हें मुहैया नहीं होता। सरकार की यह दोहरी नीति महज पत्रकारों के साथ ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के साथ भी सरकारी भेद-भाव माना जाएगा।

एक बात और! चंद पत्रकारों के साथ एक कमरे में बैठकर कोई नीति निर्धारण कल्याणकारी नहीं हो सकता। माना कि सरकार चलेगी, कुछ दिन तुम्हारी सत्ता भी कायम रहेगी, लेकिन इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि तुमने सभी पत्रकारों के लिए कुछ नहीं किया। क्योंकि कोई पत्रकार छोटा-बड़ा नहीं होता, पत्रकार ‘पत्रकार’ होता है। समाज और सरकार दोनों उसकी नजर में बराबर होते हैं, तो फिर सरकार पत्रकारों के साथ भेदभाव क्यों करती है? पत्रकारों को समाज से अलग क्यों देखती है? क्यों उसके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया जाता?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 बारिश, बाढ़ और तबाही



जितेन्द्र बच्चन

शहर हो या गांव, बारिश और बाढ़ से आई तबाही का मंजर हर जगह देखने को मिल रहा है। जहां बाढ़ का प्रकोप अभी नहीं हुआ है, वहां भी लोग डरे-सहमे हुए हैं। न जाने कब तबाही अपना रुख उनकी तरफ कर ले। अचानक काल के गाल में समा गए लोग, बर्बाद हुई फसलें, तबाह हुए किसान और आसमान छूते सब्जियों के भाव ने हरेक की चिंता बढ़ा दी है। गम और गुस्से में लोगों ने सरकार को कोसना शुरू कर दिया है- जब पता है कि बारिश होगी, बाढ़ आ सकती है और तबाही का मंजर देखने को मिलेगा तो अधिकारी और कर्मचारी इतने लापरवाह क्यों बने रहते हैं? हर साल उन्हें किसी आपदा के आने का इंतजार क्यों रहता है?

सरकार यह तो अच्छी तरह से जानती है कि बारिश होगी और बाढ़ आएगी। गंदगी फैलेगी और सब्जियों के दाम भी आसमान छुएंगे, तो इससे निपटने और कीमतों को काबू में करने की आखिर पहले से तैयारी क्यों नहीं की जाती? जमाखोरों को अवसर क्यों दिया जाता है? उन पर लगाम क्यों नहीं लगाई जाती? रातोंरात रेट बढ़ाने वालों के खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं होती? हर दुकानदार अपनी मर्जी से रेट तय करेगा, क्या? व्यापारी भाईयों की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह भी अपना हित सुरक्षित रखते हुए इस बाढ़-आपदा के समय में समाज का साथ दें? एक आदर्श प्रस्तुत करें।

दरसअल, सरकार का रुख इस मामले में साफ नहीं है। वोट बैंक के चक्कर में ज्यादातर सरकारें व्यापारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाने से बचती हैं। आखिर चुनाव में ‘सहयोग’ जो मिलता है। इसीलिए सरकार महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों पर कभी पूरी ईमानदारी से काम करती नजर नहीं आती। विपक्ष को भी बैठे-बिठाए एक नया मुद्दा मिल जाता है। कार्यकर्ता आवाज बुलंद करने का नाटक शुरू कर देते हैं। धरना-प्रदर्शन होने लगता है। लेकिन आम आदमी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। गरीब और मध्यम वर्ग पहले भी मरता-खपता रहा है, आज भी तिल-तिलकर जीने को मजबूर है। फर्क आया है तो बस इतना कि पहले पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती थी। अब महीने भर सरकार के पांच किलो राशन पर गुजर-बसर करने के लिए एक गरीब लाइन में खड़ा रहता है।

यह हम नहीं कह रहे हैं, ऐसा सरकार मानती है। शासन-प्रशासन बारिश से पहले नाले-नालियों की सफाई करने की बात करता है, कहीं-कहीं कुछ काम होता भी है लेकिन जो सिल्ट या गाद निकाली जाती है, उसे बराबर उठाया नहीं जाता। बारिश के साथ वह फिर उसे नाले में समा जाती है या गालियों और सड़कों पर फैलकर गंदगी में बदल जाती है। बड़ी-बड़ी बीमारियों को न्योता देती है। सफाइकर्मी, सुपरवाइजर और नगर निगम या नगर पालिका के अधिकारी अपने पद पर बने रहते हैं। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इसी तरह नदियों का जो रास्ता है, उसमें भी तरक्की के नाम पर अवरोध उत्पन्न किया गया है। कुदरत से सरेआम छेड़छाड़ की जाती है। नदियों के किनारों तक ठेकेदारों ने प्लाट काट दिए। मकान बन गए। होटल और रेस्टोरेंट सजा दिए, सरकार के नुमाइंदे जेब में नोट भरकर कान में अंगुली डालकर सोते रहे। फिर बरसात में नदी उफनाई तो कहां जाएगी? वह अपना रास्ता तो तय करेगी न?

आबादी में पानी प्रवेश करते ही लोग बाढ़ आने की दुहाई देने लगते हैं और सरकार आपदा के नाम पर कुछ मदद-इमदाद देकर जनता का दिल जीतने की कोशिश करती है। आखिर उसे अपनी पार्टी का वोट बैंक भी तो देखना है। कोई अपने गिरेबां में नहीं झांकता। सरकार, राजनीतिक पार्टियां और शासन-प्रशासन अगर आत्ममंथन कर लें तो अगली साल बारिश और बाढ़ से होने वाली बार्बादी निश्चित ही कम की जा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होगा। होगा वह जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। आपदा में नेताओं, अधिकारियों और कर्मचारियों ने अवसर तलाशना शुरू कर दिया है। शहरों में बारिश से गिरे घर और गांवों में चौपट हुई फसल अथवा जन-धन हानि का जायजा लेने लेखपाल, तहसीलदार और राजस्व विभाग के अन्य कर्मचारी क्षेत्रवार का दौरा करेंगे, बाढ़ पीड़ितों को कितनी और कैसे आर्थिक सहायता दी जाए, उनका मुआवजा कितना तय हो, यह सरकारी बाबूओं के रहमोकरम पर निर्भर होगा।

सरकार दावा करेगी, पड़ितों का एक-एक पैसा सीधे उनके खाते में जाएगा। सारा सिस्टम ऑन लाइन कर दिया गया है, लेकिन कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनके आवेदन तो ऑनलाइन होते हैं पर जब तक उनका प्रिंट निकालकर संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को मैनुअल नहीं दिया जाता, उससे जुड़ी एक भी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ती। और उसी कार्रवाई के नाम पर शुरू हो जाता है रिश्वत का लेन-देन! सीएम हो या पीएम, करते रहे दावे पर दावे। ऊपर से लेकर नीचे तक कल भी लूट-खसोट होती थी और आज भी जारी है। इस आपदा से जो बच जाएंगे, उन्हें तरह-तरह के संक्रामण से जूझना पड़ेगा। जिन अस्पतालों में पहले से ही मरीजों को अच्छा इलाज नहीं मिलने की शिकायत है। कहीं डॉक्टर नहीं हैं तो कहीं दवाओं का अभाव है, वहां जलजमाव और बढ़ती गंदगी से जो बीमारी फैलेगी (ईश्वर करे ऐसी कोई बीमार न हो), उसका इलाज कैसे होगा? क्या सरकार इस समस्या से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)


 चरणों में सरकार



-जितेन्द्र बच्चन

कई राज्यों में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। ऐसे में अब नेताओं को फिर से जनता जर्नादन दिखने लगी है। हर शख्स में उसे भगवान नजर आने लगे हैं। ताजा उदाहरण मध्य प्रदेश का है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सीधी जिले के पेशाब पीड़ित आदिवासी दशमत रावत को भोपाल बुलाया। कुर्सी पर बिठाया, उनके पैर धोए, तिलक लगाया, फूल-माला पहनाई और बगल में बैठकर नाश्ता किया। उसके बाद साल ओढ़ाकर कहा कि ‘अब आप हमारे दोस्त हैं। जनता ही मेरे लिए भगवान है।’ और माफी मांगी।

दरअसल, भाजपा नेता प्रवेश शुक्ला द्वारा दशमत रावत पर पेशाब किए जाने का वीडियो मंगलवार को सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। उसके बाद सियासत गरमा गई। पुलिस ने भारतीय दंड संहिता और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत मामला दर्ज कर बुधवार, 5 जुलाई को प्रवेश शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया। गुरुवार को मुख्यमंत्री ने दशमत को सीधी से भोपाल बुलाकर मुलाकात की। सवाल उठता है- पेशाब पीड़ित का पैर धोना मानवता है या राजनीति? क्या महज पैर धोने से पापा धुल जाता है? शिवराज जी, यह जनता है। वह इस बात को अच्छी तरह समझती है कि आपकी आंखों में पश्चाताप नहीं वोट बैंक की चिंता नजर आ रही है। आदिवासियों के लिए यह प्यार नहीं, बल्कि जनता का डर है। क्योंकि एक बार आदिवासी हाथ से निकल गए तो मध्य प्रदेश में भाजपा को कोई सत्ता नहीं दिला सकता।

मध्य प्रदेश में आदिवासियों की करीब डेढ़ करोड़ आबादी है, लेकिन 2018 के बाद से आदिवासी लगातार भाजपा से दूर होते जा रह हैं। राज्य की विधानसभा की 47 सीटें आदिवासी मानी जाती हैं, जिनमें से 31 सीटों पर पिछली बार कांग्रेस ने कब्जा किया था और भाजपा 18 सीटों पर सिमट कर अंतत: राज्य में हार गई थी। यह अलग बात है कि बाद में जोड़-तोड़ कर चौहान साहब ने सरकार बना ली। तब से अब तक भाजपा आदिवासियों को लुभाने में लगी है। आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले तीन महीने में चार बार मध्य प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। पिछले दिनों वह शहडोल गए तो पकारिया में आदिवासी बच्चों को दुलारते-पुचकारते भी नजर आए थे, लेकिन भाजपा के प्रवेश शुक्ला ने पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इस घटना के बाद से आदिवासी समाज अब भाजपा के हर कार्यकर्ता को नफरत और हिकारत से देखने लगा है। भाजपा और सीएम शिवराज से उनके एक-एक सवाल का जवाब देते नहीं बन रहा है।

दे भी नहीं सकते। क्योंकि दशमत रावत के साथ जो कुछ हुआ, वह बताता है कि जमाना कहीं भी पहुंच जाए, लेकिन कुछ लोगों के दिमाग अब सीधे नहीं हैं। वह इंसान को इंसान नहीं समझते। वायरल वीडियो में भाजपा का प्रवेश शुक्ला मुंह में सिगरेट लगाकर आदिवासी दशमत रावत पर पेशाब कर रहा था। मामला संज्ञान में आया तो पुलिस से छिपने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ सरकार की थू-थू होने लगी तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया। आनन-फानन में सरकार ने आरोपी के घर पर बोल्डर भी चलवा दिया। उससे भी बात नहीं बनी तो सीएम शिवराज सिंह चौहान ने पीड़ित को भोपाल बुलाकर उनके पैर धोए। शनिवार को सीधी के कलेक्टर साकेत मालवीय ने बताया कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर दशमत रावत को पांच लाख रुपये की सहायता राशि और आवास निर्माण के लिए डेढ़ लाख रुपये की आर्थिक सहयता भी उपलब्ध करा दी गई है। कांग्रेस के कमलनाथ इस सबको नौटंकी बताते हुए पूछते हैं कि चुनाव से पहले क्यों नहीं याद आते भगवान?

लेकिन हमारा किसी एक पार्टी से कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस हो भाजपा, सियासत के हमाम में सभी नंगे हैं। सौ की सीधी एक बात- दशमत रावत पर पिछले दिनों जो गुजरी है, उसे पूरा आदिवासी समाज शायद ही भूल पाए… और यही डर अब भाजपा के गले की हड्डी बन चुका है। क्योंकि सवाल पैर धोने का नहीं है। सवाल इसका है कि भाजपा के प्रवेश शुक्ला ने न्याय, बराबरी और बंधुत्व की अवधारणा पर पेशाब कर दिया। शिवराज चौहान इसकी दुगंर्ध पैर धोकर नहीं मिटा सकते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)


शनिवार, 20 नवंबर 2021

झुकी सरकार, जीत गए किसान



जितेन्द्र बच्चन
प्रकाश पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से माफी मांगते हुए कृषि से जुड़े तीन नए कानून को वापस लेने का ऐलान कर के एक स्वस्थ्य राजनीति का परिचय दिया है। इसके लिए उनका स्वागत होना चाहिए लेकिन यह फैसला पूरी तरह राजनीतिक लाभ लेने से प्रेरित है और बहुत देर से लिया गया है। अगर पीएम मोदी ने और पहले विवेक दिखाया होता तो कम से कम सैकड़ों किसानों की जान बच जाती। हजारों अन्नदाता की खुशियां काफूर न होती। सैकड़ों किसानों के वीबी-बच्चे अनाथ न होते। लखमीपुर की लोमहर्षक घटना न घटती। पत्रकार की हत्या न होती और देश को तमाम स्थानों पर चल रहे धरना-प्रदर्शन व रेल रोको जैसे आंदोलनों से अरबों रुपये का नुकसान न सहना पड़ता। करीब 14 महीने से चल रहे किसान आंदोलन के कारण देश को जो आर्थिक क्षति पहुंची है, उसकी शायद भरपाई हो जाएगी लेकिन जिनकी जान चली गई, जिन्हें कत्ल कर दिया गया और जो निर्दोष होते हुए भी अकाल ही काल के गाल में समा गए, क्या उन्हें जिन्दा किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं। इसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती।
मोदी सरकार हो या योगी सरकार, सरकारें आती-जाती रहेंगी। लेकिन यह किसान आंदोलन इतिहास रचते हुए यह सीख और सबक जरूर दे जाएगा कि अन्नदाता से ऊपर कोई नहीं है। आपको याद होगा, इन चौदह महीनों के घटनाक्रम में किसान आंदोलन से जुड़े प्रदर्शनकारियों ने कई बार सडक़ पर उतरकर जाने-अन्जाने में कानून तोड़ा, संविधान की धज्जियां उड़ाईं, लाल किले तक की प्रचीर पर चढ़ गए, कानून हाथ में लिया और उसका खुलेआम उल्लंघन भी किया, तब भी सरकार में दम नहीं था कि वह सख्ती बरतने का जोखिम उठाती। सरकार और उसके नुमाइंदों ने किसान आंदोलनकारियों को देशद्रोही और आतंकी तक तो कह डाला, यह भी कहा कि ये किसान नहीं हो सकते, कई किसानों पर मुकदमे भी दर्ज किए, लेकिन अब जब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब सहित देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने का समय आया और नरेन्द्र मोदी, अमित शाह की जोड़ी ने इसके लिए दौरे करने शुरू किए तो दूर दृष्टि का ज्ञान हुआ। शाह और मोदी दोनों को लगा कि अगर किसान आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो चुनावी नतीजे उनके मनमाफिक नहीं आ सकते। सीधी-सी बात, अन्नदाता को नाराज कर सत्ता नहीं हासिल की जा सकती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवम्बर, 2021 की सुबह-सुबह माफी की चासनी में लपेटकर तीनों नए कृषि कानून को वापस लेने का ऐलान कर दिया।
आखिर क्यों झुकी सरकार? दरअसल, पश्चिमी यूपी में मजबूत किसान आंदोलन से जाट वोट छिटकने का खतरा था। हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में हुए उप चुनावों में मिली करारी शिकस्त से झटका लगा। इसके अलावा अपने भी कुछ लोग खासकर मणिपुर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक और सांसद वरुण गांधी ने तो सीधा मोर्चा खोल दिया। अंतत: किसानों की जीत हुई। जय किसान!
लेकिन पीएम मोदी के अपने फैसले पर सियासत का पूरा मुलम्मा चढ़ा है। मोदी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि यह उसकी हार है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि वे कुछ किसानों को नए कानून को लेकर समझा नहीं पाए, इसलिए वापस ले रहे हैं। और पछतावा भी है कि इस ‘वापसी’ से देश के छोटे किसानों को नुकसान होगा। एक तीर से दो निशाने— बड़े किसान मोदी की यह एक सौगात समझें कि भाजपा बैकफुट पर आ गई और छोटे किसान अब भी उम्मीद बांधे रहे। इसे कहते हैं चित भी मेरी और पट भी मेरी।
मोदी जी वाकपटु हैं, इसमें दो राय नहीं! मोदी जी दूरदर्शी हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं। लेकिन भाजपा सत्ता में कैसे बनी रहे, यह चिंता उन्होंने गुरु पर्व की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तीनों विवादास्पद कृषि कानून को वापस लेने का ऐलान कर जगजाहिर कर दिया। पीएम मोदी के इस फैसले से पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निश्चित ही पार्टी को लाभ मिलेगा, कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ वह सियासी फायदा उठाने में कामयाब हो सकते हैं, किसान आंदोलन खत्म होने का रास्ता भी खुल गया है, लेकिन इस पर विचार करने की अब जरूरत बढ़ गई है कि देश में खेती-किसानी और छोटे किसानों की हालत में सुधार हो और उसके लिए संस्थागत बदलावों के लिए वातावरण तैयार किया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

मुरादनगर: भ्रष्ट सिस्टम, मौत का मंजर


- जितेन्द्र बच्चन

भ्रष्ट सिस्टम ने श्मशान को भी नहीं छोड़ा और पलक झपकते 25 जिंदगियों को लील गया। वाकया नए साल के तीसरे दिन 03 जनवरी की सुबह करीब साढ़े 11 बजे का है। दिल्ली-एनसीआर में शामिल गाजियाबाद के मुरादनगर श्मशान घाट में एक गलियारे का लेंटर गिरने से 25 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 15 से अधिक लोग घायल हैं। घायलों में अब भी कई लोग अस्पताल में जिंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। हादसा तब हुआ, जब मुरादनगर के बंबा रोड संगम विहार निवासी 70 वर्षीय जयराम का रविवार की सुबह निधन हो गया और उनकी अंतिम यात्रा में 50 से ज्यादा लोग शामिल होकर श्मशान घाट पहुंचे। बारिश होने के कारण अधिकतर लोग प्रवेश द्वार पर बने 70 फुट लंबे गलियारे में खड़े थे। दाह-संस्कार पूरा होने के बाद वहीं पर दो मिनट का मौन रखा गया। इसी दौरान गलियारे का लेंटर जमींदोज हो गया।


दिल दहलाने वाला मंजर था। एकदम से चीख-पुकार मच गई। मलबे के नीचे दबे लोगों को देख आसपास के लोग दहल उठे। कलेजा मुंह को आ लगा। स्थानीय लोगों ने मलबे में दबे लोगों को बचाने की कोशिश में जी-जान लगा दी। सरकारी अमला जब तक पहुंचा, वे 12 लोगों को मलबे से बाहर निकाल चुके थे। इसके बाद जिलाधिकारी डॉ अजय शंकर पांडेय और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कलानिधि नैथानी ने आकर राहत व बचाव अभियान की कमान संभाली, लेकिन एनडीआरएफ को देर से सूचना दी गई। नतीजतन वह टीम दोपहर करीब एक बजे पहुंची। अगर समय से यह टीम बुला ली जाती तो शायद कुछ और लोग जिंदा होते, लेकिन प्रशासन हादसे को इतना बड़ा नहीं समझ रहा था। उससे कहीं न कहीं यहां थोड़ी चूक हुई है।

इस हादसे का सबसे बड़ा कारण है घटिया सामग्री का प्रयोग। मिलावट, भ्रष्ट सिस्टम! बेईमान अधिकारी, घूसखोर अफसर और किसी भी इमारत को दीमक की तरह खोखला करते ठेकेदार! भ्रष्टाचार का ही नतीजा है कि 55 लाख रुपये की लागत से तैयार निर्माण 15 दिन बाद ही बालू के रेत की तरह ढह गया। अभी इसका लोकार्पण भी नहीं हुआ था। मुश्किल से दो महीने पहले जिला योजना के तहत बंबा श्मशान घाट का निर्माण कराया गया था। इसके लिए करीब 55 लाख रुपये का टेंडर पास हुआ था, जिसमें दो कमरे और शवों के अंतिम संस्कार के लिए शेड तैयार किए गए। उसी में मुख्य द्वार का 70 फुट लंबा गलियारा भी शमिल था। हादसे से पंद्रह रोज पहले ही इसे जनता के लिए खोला गया था। निर्माण में घटिया सामग्री इस्तेमाल की गई, जिसकी वजह से गलियारे का लेंटर जमींदोज हो गया। मलबे में महज सरिया और रेत ही दिखाई दे रहा था। अब स्थानीय सभासद दावा कर रहे हैं कि उन्होंने घटिया निर्माण की ईओ से शिकायत की थी, लेकिन उन्होंने सुनवाई नहीं की। अगर जिम्मेदार अधिकारियों ने ड्यूटी ईमानदारी से निभाई होती तो आज जान गंवाने वाले जिंदा होते।

सरकार अब जागी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मृतकों के परिजनों को दो-दो लाख और घायलों को 50-50 हजार रुपये की आर्थिक मदद देने की घोषणा करने के साथ ही मंडलायुक्त और एडीजी मेरठ जोन से घटना की रिपोर्ट तलब की है। लेकिन पीडि़त परिवारों को शक है कि उन्हें न्याय मिलेगा।वे हाईवे पर शव रखकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। उधर जयराम के पुत्र दीपक की तहरीर के आधार पर थाना कोतवाली मोदीनगर पुलिस ने नगर पालिका की ईओ निहारिका सिंह, जेई चंद्रपाल, सुपरवाइजर आशीष, ठेकेदार अजय त्यागी और अन्य के खिलाफ गैर इरादतन हत्या, भ्रष्टाचार, काम में लापरवाही सहित अन्य धाराओं के तहत मामला दर्ज कर लिया। सोमवार की सुबह होते-होते इनमें से तीन आरोपितों निहारिका सिंह, चंद्रपाल और आशीष को गिरफ्तार भी कर लिया गया। उसी रोज देर रात ठेकेदार अजय त्यागी और उसके साझीदार संजय को भी पुलिस ने दबोच लिया। देर-सवेर हो सकता है कि दोषियों को थोड़ी-बहुत सजा भी मिले, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इतने मात्र से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या इस कार्रवाई के बाद आगे कोई ऐसी घटना नहीं होगी?

जनाब, अगर कुछ करना ही है तो भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार करिए। घूसखोर अधिकारियों को हटाइए। सिस्टम में बैठे उन अफसरों को निकाल बाहर करिए जो बिना नजराने के कोई काम नहीं करते। ऐसे लोगों की पहचान करिए जो समाज को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। उन सामाजिक संस्थाओं को आगे बढऩे का मौका दीजिए जो समय रहते लोगों को भ्रष्टाचार के प्रति आगाह करती हैं। और यह तभी संभव होगा जब सरकार के साथ-साथ हमारा समाज भी जागेगा।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

  1. यूपी बार काउंसिल की अध्यक्ष दरवेश सिंह की यहत्या की गुत्थी और उलझी


आठ चश्मदीदों में से चार के बयान के बाद इस मामले की गुत्थी सुलझने के बजाय और उलझ गई है। हत्या करने वाले वकील की भी मौत हो गई।

जितेन्द्र बच्चन
दो दिन पहले ही दरवेश सिंह यादव का सितारा बुलंदियों पर पहुंचा था। वह उत्तर
प्रदेश बार एसोसिएशन की पहली महिला अध्यक्ष चुनी गई थीं। उन्होंने यूपी बार काउंसिल में इतिहास रचा था। देश-प्रदेश के तमाम लोग उन्हें बधाईयांदे रहे थेतभी 12 जून का वह मनहूस दिन आया। आगरा की दीवानी कचहरी के वरिष्ठ वकील अरविंद मिश्रा के चेंबर में अधिवक्ता मनीष शर्मा ने लाइसेंसी रिवाल्वर से दरेवश की गोली मारकर हत्या कर दी। इसके बाद खुद की कनपटी पर भी गोली मारकर आत्महत्या करने की कोशिश की है
गोलियों की गूंज से कचहरी परिसर में तहलका मच गया। वकील-जज सभी सन्न रह ग। दरवेश और मनीष कई साल से एकसाथ काम कर रहे थे।मनीष करीब-करीब उनका सारा कामकाज देखता थाफिर ऐसा क्या हुआ कि उसी ने दरवेश को गोली मारकर मौत के घाट उतार दियाआगरा पुलिस के आला अफसर मौके पर पहुंच गए। दरवेश को तीन गोली मारी गई थी। मनीष की सांस अभी चल रही थी। उसे फौरन नजदीक के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। तब तक आगरा के एडीजी अजय आनंद भी मौके पर आ गए। उनके दिशा-निर्देश पर थाना कोतवाली न्यू आगरा पुलिस ने दरवेश का शव पोस्टमार्टम के लिए भेजकर मामले की गहन जांच-पड़ताल शुरू कर दी है।
दरवेश सिंह यादव मूलत: एटा उत्तर प्रदेश की रहने वाली थीं। आगरा कॉलेज से
विधि स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर आगरा
विश्वविद्यालय से एलएलएम किया। 2004 में वकालत शुरू की। 2012 में पहली
बार वह बार एसोसिएशन की सदस्य बनीं। 2016 में बार काउंसिल की उपाध्यक्ष और 2017 में कार्यकारी अध्यक्ष चुनी गईं। जून, 2019 को प्रयागराज में यूपी बार काउंसिल का चुनाव हुआ तो दरवेश यादव प्रदेश के बार काउंसिल के इतिहास में पहली महिला अध्यक्ष चुनी गईं।
दरवेश की किसी से कोई दुश्मनी-अदावत नहीं थी। दरवेश के भाई पंजाब सिंह यादव के बेटे सनी यादव ने थाना न्यू आगरा में इस मामले में तीन लोगों के खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज कराया है। आरोपितों में अधिवक्ता मनीष शर्माउसकी पत्नी वंदना शर्मा और विनीत गुलेचा शामिल हैं। दरवेश के मौसेरे भाई मनोज यादव का कहना है कि दरवेश पिछले चार साल से बार कौंसिल की उपाध्यक्ष थीं। बार कौंसिल से मनीष दरवेश के नाम पर पैसा लेता रहा। उसने 50 लाख का गबन किया था। जब भी हिसाब मांगा जातावह आनाकानी करने लगता।
मनोज यादव बताते हैं, “मनीष बार कौंसिल का चुनाव लड़ना चाहता था। दरवेश के
चुनाव जीतने पर वह दीदी से जलने लगा था। मनमुटाव होने के बाद दरवेश अपना चेंबर छोड़कर अरविंद मिश्रा के चेंबर में बैठने लगी थीं। मनीष ने उनके चेंबर पर कब्जा कर लिया था। 12 जून को दरवेश का आगरा दीवानी परिसर में अभिनंदन होना था। दरवेश अरविंद मिश्रा के चेंबर में थीं। दोपहर करीब दो बजे मनीष कार्यक्रम में आया और आते ही उसने दरवेश के साथ अभद्रता करनी शुरू कर दी। दरवेश ने विरोध किया तो बात और बढ़ गई। गुस्से में मनीष ने पहले मनोज पर गोली चला। वह बच गया तो उसने दरवेश को गोली मार दी। वह मौके पर ही ढेर हो गईं।
वरिष्ठ वकील अरविंद मिश्रा कहते हैं, “वारदात के वक्त मनीष शर्मा हमारे चेंबर में समझौते के लिए आया था। दरवेश और मनीष करीब चार घंटे तक साथ रहे। बाद में मनीष को किस बात पर क्यों गुस्सा आयाहमें नहीं मालूम पर यह सच है कि मनीष बहुत पहले से दरवेश के बैंक खाते आदि देखता था।
एसएसपी के अनुसार इस घटना के आठ चश्मदीद गवाह हैं। चार लोग चेंबर के अंदर
थे और चार लोग बाहर थे। एक चश्मदीद का कहना है कि मौके पर इंस्पेक्टर
सतीष यादव मौजूद थे। उसे देखते ही मनीष शर्मा को गुस्सा आ गया और उसने दरवेश को गोली मार दी। इंस्पेक्टर यादव मैनपुरी पुलिस लाइन में तैनात हैं। दो अन्य चश्मदीदों ने भी इस बात की तस्दीक की है कि इंस्पेक्टर सतीश यादव मौका-ए-वारदात पर मौजूद थेलेकिन 20 जून की शामथाना न्यू आगरा में इंस्पेक्टर सतीश यादव ने अपने बयान में कहा है, मैं घटना के वक्त चेंबर में मौजूद नहीं था और न ही हमें यह मालूम है कि मनीष को गुस्सा क्यों आया?
इस विरोधाभाषी बयान से मामले की गुत्थी और उलझ गई है। घटना के आठ चश्मदीदों में से चार के बयान अब तक हो चुके हैं, लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हुआ कि मनीष ने यह वारदात क्यों कीपुलिस की उम्मीद अब बाकी के चार गवाहों और 12 जून से गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती हत्यारोपित अधिवक्ता मनीष शर्मा के बयान पर टिकी है। मनीष को अभी होश नहीं आया है। उन्हें वेंटिलेटर के सहारे रखा गया है। बाकी के इस मामले के दो आरोपितों वंदना शर्मा और विनीत गुलेचा को तफ्तीश कर रहे थाना न्यू आगरा कोतवाली के इंसपेक्टर अजय कौशल ने 22 जून को निर्दोष बताया है।
दरवेश यादव के भतीजे पार्थ ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। दिल्ली की वकील इंदू कौल ने भी 21 जून को सीबीआई जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस सूर्यकांत की अवकाशकालीन पीठ के सामने प्रस्तुत याचिका में दरवेश यादव के परिवार को 25 लाख रुपये मुआवजा दिलाने के साथ ही पूरे देश की अदालतों में महिला वकीलों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग की गई है। सर्वोच्च न्यायालय इस मामले की अगली सुनवाई 25 जून को करेगा।