रविवार, 31 मार्च 2013


रात का राक्षस

एक वार और गर्दन धड़ से अलग! खून करना उसका शौक है! वह खुद कहता है, 20 साल की उम्र में अब तक 5 कत्ल कर चुका है! 13 और लोगों की हत्या करने का इरादा है! हिट लिस्ट बना रखी है शैतान ने! खून देखकर अफसोस नहीं आनंद आता है उसे! दहशत में हैं इलाके के लोग। कांप उठती हैं औरतें उसका नाम सुनकर। पुलिस साइको किलर मानती है! कौन है यह नरपिशाच?

-जितेन्द्र बच्चन
इंसान की शक्ल में नरपिशाच! नाम है राकेश राज और काम, कत्ल करना! करीब बारह वर्षों में शायद ही गोरखपुर के किसी इंसान ने इस शैतान को दिन के उजाले में देखा हो, लेकिन शाम ढलते ही वह अपनी शैतानी सत्ता का शहंशाह होता है। जिस दिन वह जेल से छूटकर आया, आठ-10 किलोमीटर के इलाके में खौफनाक मंजर था। दहशत और महज सन्नाटा, गोया शहर में कफर््यू लगा हो। आखिर चुन-चुनकर लोगों का कत्ल करने का उसके सिर पर जुनून जो सवार है। हिट लिस्ट बना रखी है उसने। डुमरी गांव और आस-पास के 18 लोगों के नाम थे उसकी सूची में, जिनमें से दो लोगों की लाश पुलिस बरामद कर चुकी है और तीन लापता हैं। अब उस •ोड़िए की खूनी नजर बाकी बचे 13 लोगों पर है। पुलिस के अनुसार, आरोपी के खिलाफ हत्या, जान से मारने का प्रयास और एनडीपीएस एक्ट के तहत कई मामले दर्ज हैं। राकेश खुद कहता है कि अब तक वह पांच लोगों को मौत के घाट उतार चुका है और बहता खून देखना उसे अच्छा लगता है। सूरज डूबते ही वह निकल पड़ता है अपने गड़ासे की प्यास बुझाने।
10 मार्च, 2013 की रात भी राकेश राज ने डुमरी गांव के चौकीदार पाले (80) की गंडासे के एक वार से ही हत्या कर दी। इसके बाद 11 और 12 मार्च की रात सुनील गौड़ और अशोक गौड़ की हत्या करने के इरादे से उनके घरों में हमला किया, लेकिन वे दोनों बच गए। अपने मकसद में कामयाब न होने पर राकेश ने खीझकर अशोक के घर पथराव भी किया। घटना से सदमे में आया अशोक का आठ साल का बेटा रवि गौड़ आज भी उस रात का खौफनाक मंजर यादकर सिहर उठता है। थाना सहजनवां पुलिस की जीना भी हराम हो गया। संगीन वारदात की खबर मिलते ही थानाध्यक्ष रामकार यादव मयफोर्स खूनी दरिंदे की तलाश में रवाना हो गए। पुलिस की कई टुकड़ी रात-रात भर गांव-गली की खाक छानती रही, तब जाकर 14 मार्च की सुबह सफलता मिली। राकेश राज को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, लेकिन उसके हौंसले में कोई कमी नहीं आई। उसने पुलिस के सामने अपना गुनाह कबूल करते हुए उसने कहा कि उस रात वह खाना खाकर सोने जा रहा था, तभी याद आया कि पाले का काम तमाम करना है और उसने जाकर उसकी हत्या कर दी।
शाम होते ही घरों में दुबक जाते हैं लोग
राकेश की संगत अच्छी नहीं थी। बचपन से ही वह गांव के नशेड़ियों के साथ रहने लगा था। कोई कभी रोकने-टोकने की कोशिश करता, तो राकेश उसे ही उल्टा धमकाने लगता। आरोपी के पिता राजेंद्र राज भी गांजा पीते थे। गांव के बाज़ार में बने मंदिर पर अक्सर दो-चार लोगों के साथ उनकी महफिल जमी रहती। कभी बेटे को सुधारने की उन्होंने कोशिश नहीं की। कभी राकेश पकड़ा जाता, तो मां थाने-पुलिस में जाकर किसी तरह उसे छुड़ा लाती। उसकी मां के हाथ-पैर जोड़ने पर कई बार इलाके के कुछ नेताओं ने भी राकेश को छोड़ने के लिए स्थानीय पुलिस से सिफारिश की है, तब किसी को क्या पता था कि आगे चलकर राकेश राज लोगों की जान से खेलने लगेगा। नतीजतन आज उसके आतंक से गोरखपुर के छह गांव पूरी तरह से दहशत में जी रहे हैं। डुमरी, सोनचार, शहरी, गोविंदपुर, घघसरा, पतेड़ आदि गांवों के लोग सूरज ढलते ही घरों में दुबकने लगते हैं।
रात के सन्नाटे में करता है शिकार
मुल्जिम का कत्ल करने का तरीका, औजार और समय करीब-करीब एक-सा ही होता है। चौकीदार पाले की हत्या भी उसने उसी तरह से की जैसे इसने अपने पिछले शिकारों को अंजाम दिया था। रात 11 बजे के बाद अपने बरामदे में गहरी नींद में डूबे पाले की गर्दन गड़ासे के वार से उसने धड़ से अलग कर दी। आधी रात के आसपास पूरा गांव सोया होता है। गर्मी में कुछ लोग घर के बाहर सोते हैं, जिससे राकेश को अपने शिकार पर वार करने में आसानी होती है। वह हमेशा गंड़ासे से ही कत्ल करता है। शिकार का सिर, चेहरा और गर्दन उसके निशाने पर होते हैं। उसकी पूरी कोशिश होती है कि एक ही वार में काम तमाम हो जाए। न कोई आवाज और न ही बचने का मौका।
अदालत की परवाह नहीं
इस घटना से करीब एक महीने पहले अपने ही गांव के नरेंद्र राज की हत्या के मामले में जेल से जमानत पर रिहा हुआ था राकेश, लेकिन सीखचों के बाहर आते ही एक बार फिर उसने अपना खूनी शौक पूरा करते हुए चौकीदार पाले की हत्या कर दी। राकेश को अदालत और जज से भी डर नहीं लगता। उसका कहना है, ‘क्या करेगा जज? मैं किसी अदालत से नहीं डरता। मुझे जिसे मारना था, मार दिया। एक नहीं मैंने कई खून किए हैं मैने। मुझे खून देखकर बहुत मजा आता है। मेरी फाइल जो आगे बढ़ाएगा, मैं उसे भी मार दूंगा।’ थाने में भी आरोपी की हेकड़ी कम नहीं हुई। जेल जाने से वह कतई नहीं डरता। कहता है, ‘क्या होगा, वहां भी सबकुछ चलता रहेगा। सीधे या फिर टेढ़े।’ कुछ लोग राकेश को सनकी कहते हैं। सच्चाई जो भी हो, लेकिन आरोपी के दावे और उसके साइको होने के तथ्य ने पुलिस का सिरदर्द बढ़ा दिया है। पुलिस हत्या के उन मामलों की जांच में जुटी है, जिनमें हत्या का तरीका राकेश के शिकार बने लोगों की तरह ही था।
चोरी की तहरीर से शुरू हुई बगावत
पुलिस के अनुसार, 2011 में डुमरी निवास नरेश मिश्रा ने राकेश के खिलाफ चोरी की तहरीर दी थी। पुलिस ने इस मामले की तहकीकात क्या शुरू की, राकेश राज बागी बन गया। उसने नरेश मिश्रा के चेहरे और सिर पर घातक वार किए, लेकिन लंबे इलाज के बाद नरेश बच गए। पीड़ित का कहना है कि जब वह अस्पताल में था और उसके बचने की खबर राकेश को मिली, तो गुस्से में उसने दूसरे दिन उसके घर में आग लगा दी। उनका पूरा घर खाक हो गया। आरोपी के दूसरे शिकार बने गांव के ही प्रहलाद यादव। उस पर भी राकेश ने रात में ही हमला किया था। सिर एवं चेहरे पर गहरे जख्म हैं। एक आंख की रोशनी चली गई। प्रहलाद की महज इतनी गलती थी कि उन्होंने नरेश मिश्रा का साथ दिया था। राकेश जमानत पर जेल से बाहर आया, तो प्रहलाद डर के मारे दिन भर नजरबंद रहते और रात पड़ोसी बाबूलाल चौबे के घर में सोते थे।
घात लगाकर देता है वारदात को अंजाम
राकेश का तीसरा शिकार बना बाबूलाल का 18 वर्षीय बेटा गौतम चौबे। पहले राकेश से उसकी दोस्ती थी। गांव के कुछ लोगों का कहना है कि गौतम और राकेश में चोरी के माल के बंटवारे को लेकर विवाद हुआ था। इसी के चलते गौतम ने एक दिन उसे गांव में सबके सामने थप्पड़ मार दिया था। अपने अपमान से क्षुब्ध राकेश तिलमिला उठा। मौका पाते ही एक रात उसने बरामदे में सोते हुए गौतम पर हमला कर दिया, लेकिन भगवान की कृपा से वह बच गया। अब भजन-कीर्तन की टोली में शामिल गौतम रामचरित मानस का पाठ करता है। उसकी मां मंजू चौबे आज भी उस दिन के खूनी मंजर को याद कर सिहर उठती हैं। कहती हैं, अगर इलाके की पुलिस अगर पहले ही मामले में कड़ी कार्रवाई करती, तो आज गांव में दहशत का यह माहौल न होता। फिलहाल, राकेश राज के हौसले बुलंद रहे। दिसंबर, 2012 में उसने गांव के ही नरेंद्र राज की हत्या कर दी... और अब चौकीदार पाले का कत्ल का मामला सामने आया है।
जेल जाने के बाद भी कम नहीं हुआ डर
पुलिस अधिकारियों की गहन पूछताछ के बाद आरोपी राकेश राज को गोरखपुर की सक्षम अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भ•ोज दिया गया। इससे डुमरी गांव के लोगों ने राहत की सांस ली है, लेकिन उनकी आंखों में दहशत कम नहीं हुई है। आरोपी राकेश के माकन में ताला बंद था, लेकिन पड़ोसी इतने खौफजदा हैं कि उसके बारे में कुछ पूछने पर वे तुरंत अपना दरवाजा बंद कर देते हैं। एक बुजुर्ग ने कहा, भ‘•ौया हम उसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। अगर उसे पता चल गया, तो वह हमारी भी हत्या कर देगा।’
आरोपी से 16 लोगों की लिस्ट बरामद
उत्तर प्रदेश के आर्थिक रूप से पिछड़े जनपद गोरखपुर के थाना सहजनवां के डुमरी नेवास गांव के आरोपी राकेश ने यहां के लोगों का जीना हराम कर रखा है। मुख्यालय से महज 25 किमी़ दूर स्थित डुमरी निवास गांव में कोई रात में घर से बाहर नहीं निकलता। राकेश देर रात ही लोगों पर घात लगाकर वार करता है। अब तक इस गांव के निवासी नरेश, गौतम, प्रह्लाद और नरेंद्र उसके गड़ासे के वार से घायल हो चुके हैं। बाद में नरेश की मौत हो गई। कुछ दिन तो गांव के लोग समझ ही नहीं पाए कि आखिर वह कौन सनकी है, जो एक के बाद एक संगीन वारदात को अंजाम दे रहा है। अब बुजुर्ग पाले की हत्या के बाद राकेश की गिरफ्तारी से पुलिस ने आरोपी का पर्दाफाश कर दिया है। थानाध्यक्ष (सहजनवां) रमाकर यादव ने बताया कि आरोपी को जेल भ•ोज दिया गया है। उसने बदला लेने के लिए गांव के चार लोगों पर वार किया था। राकेश के पास से 16 लोगों की एक लिस्ट भी बरामद हुई है। आगे मामले की जांच की जा रही है।
गोरखपुर से- प्रिंस पांडेय
जमानत का विरोध करेगी पुलिस
आरोपी राकेश राज के बारे में मिली जानकारी बहुत चिंताजनक है। वह समाज के लिए खतरा बन चुका है। उसकी केस हिस्ट्री खोली जा रही है। हमारा प्रयास है कि जेल में उसकी मेडिकल और सायिकोलोजिकल काउंसलिंग कराई जाए, ताकि उसकी हिंसक प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सके। अदालत में हम आरोपी की जमानत का पुरजोर विरोध करेंगे। इसके बावजूद वह जमानत पर जेल से बाहर आने में कामयाब हो जाता है, तो उसकी गतिविधियों को पुलिस मॉनिटर करेगी। साथ ही मुल्जिम के उस बयान की जांच भी कराई जाएगी, जिसमें उसने अब तक कई हत्याएं करने की बात कही है।
शलभ माथुर
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गोरखपुर

सोमवार, 11 मार्च 2013


  यूपी के दबंग, ठेंगे पर कानून

उनके एक इशारे पर डीएसपी को गोली मार दी जाती है, प्रधान को अगवा कर लिया जाता है, औरत की इज्जत नीलम कर दी जाती है। सरकार कुछ नहीं कर पाती। क्योंकि सरकार से वे नहीं, उनसे सरकार चलती है और वो राज करते हैं! गुंडाराज! यूपी के दबंग! पूर्वांचल के बाहुबली! कानून को रखैल समझते हैं और पुलिस को नपुंसक!
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कलेंडर बदला, तारीख बदली। नहीं बदली तो यूपी की तकदीर और तस्वीर! 15 मार्च, 2012 को अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। 15 मार्च, 2013 को उनकी सरकार के एक साल पूरे हो जाएंगे। सूबे में न जुर्म कम हुआ और न ही गुनहगारों को बचाने की सियासत! जनवरी, 2012 से जून 2012 तक उत्तर प्रदेश में 1164 मर्डर, 920 लूट और 326 रेप की वारदात हो चुकी है। क्योंकि राज्य में सरकार से ज्यादा दबंगों की चलती है। सत्ता इनकी मुट्ठी में होती है! मुख्यमंत्री इनके इशारे पर चलते हैं। कानून से खेलना बाहुबलियों का पेशा है। जेल में रहें या रेल में, गुनाह का खेल खेलना कभी नहीं चूकते। जो दाउद से नहीं डरते, वो राजा भैया का नाम सुनते ही कांप उठते हैं। एफआईआर में उनका नाम है, लेकिन वो आजाद हैं। क्योंकि वो ‘राजा भैया’ हैं! इलाके में उनकी हुकूमत चलती है। रियासत चली गई, ठसक बाकी है! ताल ठोंककर कहते हैं, ‘मर्डर करने की क्या जरूरत है! सरकार अपनी है, ट्रांसफर करवा देते।’
उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। मुल्क की सियासत भी इसी राज्य के रहमोकरम पर चलती है। यहां हमेशा कुछ न कुछ ऐसा होता रहता है, जो देश ही नहीं दुनिया की मीडिया में सुर्खियां बनता है। समय बदला, समाज बदला, लेकिन नहीं बदला उत्तर प्रदेश। कहा जाता है कि राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत भी यहीं से हुई। कल तक जो दबंग और बाहुबली राजनेताओं के संरक्षण में काम करते थे, आज वे बिना किसी मुखौटे के राजनीति में हैं... और तो और इनमें से कुछ मंत्री पद का सुख भ•ाोग चुके हैं, तो कुछ भ•ाोग रहे हैं। इन बाहुबलियों की दबंगई ऐसी है कि मुख्यमंत्री भी जब-तब इनके सामने नतमस्तक नजर आते हैं। इनकी ‘साजिश’ और ‘चाल’ से प्रदेश की धरती कांप उठती है और जब इन्हें गुस्सा आता है, तो सूबें की सरकारें हिल जाती हैं, लेकिन इनका जलवा न कल कम था और न ही आज।
हरिशंकर तिवारी : माफिया के पितामह
दाउद जैसे अपराधी जिस समय गुनाह का ए, बी, सी, डी सीख रहे थे, उस समय उत्तर प्रदेश में हरिशंकर तिवारी अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके थे। हरिशंकर के बाहुबल का डंका विदेशों तक बजता था। स्व. वीरेंद्र शाही और हरिशंकर तिवारी के बीच होने वाली गैंगवार अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में छाई रहती थी। तिवारी ने उत्तर प्रदेश, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल तक अपना साम्राज्य बढ़ा लिया था। गोरखपुर के बुजुर्ग बताते हैं कि तिवारी ने ऐसे लोगों की टीम बना रखी थी, जो उनके एक इशारे पर बिना कुछ सोचे-समझे कुछ भी करने पर उतारू रहते थे। आज भी उनका जलवा कम नहीं हुआ है। आम आदमी हो या फिर माफिया, दोनों ही इनसे बचकर रहना पसंद करते हैं।
76 साल के तिवारी छात्र जीवन में गोरखपुर शहर में किराए के एक कमरे में रहते थे, लेकिन आज जटाशंकर मुहल्ले में उनके किलेनुमा निवास को ‘हाता’ के नाम से जाना जाता है। वे 3 बार निर्दलीय विधायक रहे। 2 बार कांग्रेस के टिकट पर जीते और एक बार तिवारी कांग्रेस से भी जीते। अब पूरी तरह राजनीति को समिर्पत हैं। एक बेटा कुशल उर्फ भीष्म तिवारी खलीलाबाद से बसपा सांसद हैं। दूसरा विनय तिवारी अभी राजनीतिक पारी आरंभ होने का इंतजार कर रहा है। भ•ाांजा गणेश शंकर विधान परिषद् अध्यक्ष है, लेकिन दूसरा बेटा विनय तिवारी विधानसभ•ाा और लोकसभ•ाा चुनाव हार चुका है। वहीं तिवारी जब से राजनीति में आए, उनका रसूख हमेशा बरकरार रहा। सरकार किसी की भी बने, मंत्री पद मिलना तय रहता। एकाध बार माफिया मंत्री के नाम पर काफी हो हल्ला भी मचा, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। तिवारी मंत्री की कुर्सी पर कायम रहे। सन 1998 में कल्याण सिंह द्वारा बसपा को तोड़कर बनाई सरकार में साइंस और टेक्नोलॉजी मंत्री रहे। वर्ष 2000 में राम प्रकाश गुप्त की भ•ााजपा सरकार में स्टांप रजिस्ट्रेशन मंत्री बने। इसके बाद 2001 में राजनाथ सिंह की भजपा सरकार बनी, तब भी हरिशंकर तिवारी की मंत्री की कुर्सी कायम रही। 2002 में मायावती की बसपा सरकार में भी वे मंत्रिमंडल के सदस्य बने रहे। उसके बाद 2003-07 तक मुलायम सिंह यादव की सरकार में भी तिवारी मंत्री रहे। उनका कोई बाल नहीं बांका कर सका और आज भी यूपी में तिवारी माफिया के पितामाह कहे जाते हैं।
अतीक अहमद : अपराध में अव्वल
पढ़ाई में फिसड्डी, क्र ाइम में अव्वल! अतीक अहमद की आज यही पहचान बन चुकी है। आतंक इतना कि इलाहाबाद में दहशत का दूसरा नाम अतीक अहमद माना जाता है। जुर्म की दुनिया में अपने नाम का डंका बजाने के बाद अतीक प्रदेश की राजनीति में ढोल बजाने लगे। इलाहाबाद में बसपा विधायक राजू पाल की हत्या का आरोप लगा और वह जेल पहुंच गए। इनके खिलाफ हत्या, लूट और रंगदारी के करीब 35 मामले दर्ज हैं। इलाहाबाद की नगर पश्चिमी सीट से लगातार चार बार विधायक रहे अतीक ने आपने छोटे भ•ााई अशरफ को समाजवादी पार्टी की साइकिल पर चढ़ाकर यह सीट उसे दे दी और खुद फूलपुर संसदीय सीट से लोकसभ चुनाव लड़ा। ज्ञात रहे कि इसी सीट से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सांसद थे। अतीक भी सांसद बन गए।
लेकिन अतीक के आतंक से ऊबे मतदाताओं ने नवंबर 2004 में हुए प्रदेश विधानसभी चुनाव में बसपा के राजू पाल को जिता दिया। राजू पाल भी अपराधी प्रवृत्ति का था। जनता को लगा कि अतीक से अच्छा है छोटे अपराधी को जिता दिया जाए, लेकिन उन्हें क्या पता था कि अतीक क्या कर सकता है। आरोप है कि अतीक अहमद और उसके छोटे भ•ााई अशरफ ने मिलकर साजिश रची और राजू पाल की हत्या करवा दी। सपा के शासन में ही यह घटना हुई थी। ऐसे में पार्टी के ही बाहुबली सांसद और उसके छोटे भ•ााई के खिलाफ कोई कार्रवाई कैसे हो सकती थी। बसपा सरकार बनी, तो माया ने अतीक को उसकी हैसियत याद दिला दी। ़फिलहाल आज भी अतीक के रसूख में कोई कमी नहीं आई है।
ब्रजेश सिंह : अपराध सुप्रीमो
उड़ीसा में गिरफ्तार ब्रजेश सिंह को पूर्वांचल ही नहीं देश के कई राज्यों में संगठित अपराध का सुप्रीमो माना जाता है। भ•ाुवनेश्वर में पहचान छिपाकर रियल स्टेट का कारोबार चलाता था यह डॉन। वहीं के बिग बाजार के बाहर से गिरफ्तार हुए ब्रजेश सिंह पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने पांच लाख रु पये का इनाम घोषित कर रखा था। हैरानी इस बात की है कि करीब 20 वर्षों तक किसी ने भी इसकी शक्ल नहीं देखी। इस डॉन की गिरफ़्तारी भी बड़े नाटकीय ढंग से हुई और उसमें भी सियासत की बू आती है, लेकिन गायब रहकर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्रजेश सिंह का आतंक इतना रहा कि पूरे इलाके में रेलवे और दूसरे सरकारी ठेकों से लेकर कोयले तक की दलाली में इसका सिक्का चलता था। गायब रहते हुए भी ब्रजेश ने राजनीतिक संरक्षण के रास्ते तलाश लिए थे। भ•ााई चुलबुल सिंह को बीजेपी में लगाया। भ•ातीजा विधायक बन चुका है, लेकिन वर्तमान समय में ब्रजेश गैंग के अधिकतर बड़े अपराधियों की या तो हत्या हो चुकी है या फिर वो किसी न किसी नेता के संरक्षण में अपना काम चला रहे हैं।
ब्रजेश को सबसे बड़ा आघात तब लगा, जब उसके सबसे खास अवधेश राय का मर्डर हो गया। अवधेश के छोटे भ•ााई अजय राय ने विधायक बनने के बाद शांति धारण कर ली। बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय को ब्रजेश का मुंशी कहा जाता था और वही अघोषित तौर पर ब्रजेश गिरोह को चलाते थे। बाद में आरोप है कि पूर्वांचल के एक और माफिया मुख्तार अंसारी ने अपने शूटर मुन्ना बजरंगी से कृष्णानंद राय की हत्या करवा दी। ब्रजेश के अपराधी जीवन का आरंभ आजमगढ़ की बाजार में पिता की हत्या होने के बाद हुआ। इलाके के दबंग ठाकुरों ने ब्रजेश के पिता का शरीर चाकू और गोलियों से छलनी कर दिया था। ब्रजेश ने पहले पिता की हत्या का बदला लिया, फिर बिहार में ब्रजेश सिंह और वीरेंद्र टाटा ने अपना कॉकस बना लिया। चंदौसी से बोकारो और जमशेदपुर तक इसकी तूती बोलती थी। कोयले की उगाही के साथ ही रेलवे, पीडब्ल्यूडी और दूसरे सरकारी विभ•ाागों की ठेकेदारी इन लोगों की कमाई का मुख्य जरिया था। ब्रजेश ने जेजे अस्पताल मुंबई में दाउद इब्रहिम के बहनोई पारकर की हत्या का बदला इस तरह लिया कि देश कांप उठा था। ब्रजेश के सबसे खास साथी वीरेंद्र टाटा की हत्या बनारस से मीरजापुर के रास्ते में श्रीप्रकाश शुक्ल गैंग ने कर दी थी। उसके बाद से यह माफिया अंडरग्राउंड हो अपनी गतिविधियां चला रहा था। अब जेल में है।
धनंजय सिंह : जेल से चलता है खेल
लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे धनंजय सिंह वर्तमान में बसपा से जौनपुर से सांसद हैं। इनके खिलाफ हत्या, लूट और रंगदारी जैसे कई मामले दर्ज हैं। लखनऊ के इलाकाई माफिया अरुण शंकर शुक्ल उर्फअन्ना और अंबेडकर नगर के माफिया अभय सिंह के दोस्त रहे हैं धनंजय सिंह। बाद में ये तीनों अलग हो गए। धनंजय की दोनों दोस्तों से आगे निकलने की भी रोचक दास्तान है। एक पुलिस मुठभ•ोड़ के बाद पुलिस ने दावा किया कि धनंजय सिंह मारा गया, लेकिन कुछ दिन बाद धनंजय सामने आया और आरोप लगाया कि उप्र पुलिस उसे जान से मार देना चाहती है। इसके बाद धनंजय सिंह नेताओं का दुलारा बन गया। विधानसभ•ाा चुनाव में उतरा और जीत गया।
लेकिन विधायक बनने के बाद भी धनंजय सिंह का आचरण नहीं बदला। उस पर अपने परम मित्र अरुण उपाध्याय के भ•ााई की हत्या का आरोप लगा, जिसका शव मीरजापुर से बरामद हुआ था। उसी समय अरुण ने कसम खाई कि जब तक इस हत्या का बदला नहीं ले लिया जाएगा, वह अपने भ•ााई की तेरहवीं नहीं करेगा। पिछले लोकसभ•ाा चुनाव में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी की लाश एक पेड़ से लटकी मिली। इस मामले का भी आरोपी रहा धनंजय। बाद में अदालत से वह इस मामले में बरी कर दिया गया। एक और दोस्त अतुल सिंह के साथ भी धनंजय का विवाद हुआ। इलाके के लोग आज भी इतना डरते हैं कि कोई धनंजय सिंह के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। पुलिस भी जो कभी इनका पीछा करती थी, आज सलाम करती है। आखिर वह माननीय संसद सदस्य हैं।
मुख्तार अंसारी : सत्ता की रही सरपरस्ती
कौमी एकता दल से मऊ विधानसभ•ाा से विधायक हैं मुख्तार अंसारी। बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय की हत्या का आरोप है। 1989 में मुलायम सिंह के पहले मुख्यमंत्रित्वकाल में मुख्तार को सत्ता का संरक्षण मिला। उसके बाद अंसारी के विरु द्ध सारे मामलों में सीबीसीआईडी की जांच लगवा दी गई। कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनी, तो मुख्तार के खिलाफ टाडा लगा दिया गया। बसपा और बीजेपी की पहली साझा सरकार में मायावती ने मुख्तार को जेड प्लस श्रेणी सुरक्षा मुहैया कराई थी। इसके बाद मुख्तार का कद इतना बढ़ गया कि वह माफिया से पूर्वांचल के मुसलमानों का रहनुमा कहा जाने लगा। तीसरी बार मुलायम सिंह की सरकार बनी, तो मुख्तार अपने चरम पर थे। ये वो दौर था जब मुख्तार की तूती बोलती थी। उसके यहां बाहर के सूबों के अपराधियों को भी संरक्षण मिलने लगा था।
उन दिनों के एक धाकड़ डीएसपी शैलेन्द्र सिंह ने एक एलएमजी पकड़ी, जो मुख्तार के पास पहुंचनी थी। मुख्तार का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन डीएसपी साहब को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। कहा जाता है, एक बड़े नेता ने मुख्तार को बचाने में अपनी सारी ताकत झोंक दी थी। इसी दौरान मऊ दंगों में मुख्तार का दंगाई रूप भी देखने को मिला और मुलायम की पूर्व सरकार में गाजीपुर में दो दर्जन से अधिक मुख्तार के विरोधियों की हत्या हुई, लेकिन मुख्तार का कुछ नहीं बिगड़ा। यहां तक कि 22 फरवरी 2009 को करंडा में एक सपा समर्थक ठेकेदार की हत्या का आरोप भी मुख्तार पर लगा, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। उनकी आन-बान शान कायम रही। वर्ष 2007 में विधानसभ•ाा चुनाव के बाद मायावती की सरकार बनी। मुख्तार असांरी को मायावती का पूर्ण संरक्षण मिलने लगा। लोकसभ•ाा चुनाव में मुख्तार को वाराणसी और उसके भ•ााई अफजाल को गाजीपुर का टिकट थमा दिया गया। अब मुख्तार अंसरी जेल में हैं।
धर्मंपाल उर्फ डीपी यादव : संगीन आरोप
यादव पर दर्जनों संगीन आरोप हैं। दिल्ली, उत्तराखंड और हरियाणा तक रसूख का फैला है साम्राज्य। पश्चिम उत्तर प्रदेश का इन्हें शराब माफिया कहा जाता है। बेटा विकास तिहाड़ जेल में बंद है। उसे देश के चर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड में सजा हो चुकी है। खुद डीपी यादव पर पहला मामला सन 1989 में गाजियाबाद जिले के कविनगर थाने में दर्ज हुआ। इसके बाद कत्ल और डकैती के 2-दो और अपहरण, गैंगस्टर और टाडा जैसे मामले मुकदमों की फेहरिस्त में शामिल होते गए। इसके साथ ही जेसिका लाल हत्याकांड में भी यादव और उसके बेटे विकास का नाम आरोपियों में शामिल हुआ।
डीपी यादव ने राष्ट्रीय परिवर्तन दल बनाया। पत्नी उर्मिलेश विधायक चुनी गर्इं। बाद में पत्नी सहित यादव ने बसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। उसके बाद डीपी तब चर्चा में आए, जब विधानसभ•ाा चुनाव में अखिलेश यादव ने इनकी छवि के चलते सपा में लेने से इंकार कर दिया। वैसे तो हमेशा ही कोई न कोई विवाद साथ जुड़ा रहता है, लेकिन बदायूं जिले की बिसौली तहसील के गांव रानेट के पास यादव की हाल ही में स्थापित यदु शुगर मिल की बात करें, तो मिल की स्थापना दबंगई और बेईमानी से ही की गई है। मिल के डायरेक्टर छोटे पुत्र कुणाल यादव को बनाया गया है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि ये मिल जबरन लिखाई गई जमीनों पर बनी है।
राजा भैया : कुंडा का गुंडा
न थाना न कचहरी, आॅन स्पाट फैसला! इलाके में राजा भैया की तत्काल न्याय दिलाने वाले युवराज की छवि है। रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया (40) को उनके विरोधी ‘कुंडा का गुंडा’ कहते हैं। इनके पिता उदय प्रताप सिंह प्रतापगढ़ जिले की तहसील कुंडा के थाना हथिगवां स्थित बेंती और भदरी स्टेट के राजा हुआ करते थे। बेंती कोठी पूरे इलाके में मशहूर है। कुंडा (प्रतापगढ़) विधानसभ•ाा क्षेत्र से ही राजा भैया विधायक हैं। वर्ष 1993 से अब तक हुए पांच बार चुनाव में उन्हें कोई हरा नहीं पाया है। लखनऊ विश्वविद्यालय से 1989 में स्नातक इस राजा पर तीन दर्जन से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं। आठ आपराधिक मुकदमों में न्यायालय ने संज्ञान लिया है। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पोटा लगाया, बाद में बरी हो गए। वर्ष 2010 में निकाय चुनाव के दौरान एक नेता की हत्या के प्रयास का मुकदमा भी चल रहा है, जिसमें राजा भैया समेत 13 लोगों की गिरफ्तारी हुई। इसके बाद 2002 में विधायक पूरन सिंह बुंदेला ने राजा के खिलाफ अपहरण का मुकदमा दर्ज कराया, जो अब भी अदालत में विचाराधीन है, लेकिन चुनाव में उन्हें कोई शिकश्त नहीं दे सका।
राजा भैया वर्ष 1996 में पहली बार कल्याण सरकार में मंत्री बने। इसके बाद 1999 में राम प्रकाश गुप्ता की सरकार, 2000 में राजनाथ सिंह और 2003 में मुलायम सिंह यादव की सरकार में भी राजा भैया को मंत्री पद से नवाजा गया। दिसंबर, 2010 में एक इलाकाई नेता ने स्थानीय निकाय चुनावों के समय राजा भैया सहित एक सांसद, विधायक और विधान परिषद सदस्य समेत 13 लोगों के विरु द्ध जान से मारने के प्रयास का मामला दर्ज कराया था। इस मामले में राजा भैया को गिरफ्तार करके उनके खिलाफ गैंगस्टर एक्ट के तहत केस दर्ज किया गया। इससे पहले साल 2002 में बीजेपी विधायक पूरन सिंह बुंदेला ने अपने अपहरण करने का आरोप लगाया था, 2004 में राजा के घर से एके-47 बरामद हुई, लेकिन वर्ष 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार बनी, तो राजा भैया को कारागार मंत्री बनाया गया। जेल मंत्री रहे राजा भैया जेल में सजा भी काट चुके हैं। ताजा मामला डीएसपी हत्याकांड की सीबीआई जांच कर रही है। राजा भैया पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी हुई है, लेकिन उनके रुतबे में कोई कमी नहीं आई। इलाके में आज भी उनकी तूती बोलती है।

-जितेन्द्र बच्चन

रविवार, 3 मार्च 2013


कातिल चेहरा


माफिया का चेहरा बदल गया, लेकिन चेहरा बदलने के बावजूद अपराध तो अपराध ही है. उसके निशाने पर पहले भी बेगुनाह थे और आज भी बेगुनाह हैं। हां, दहशत की वजह इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि कातिल का चेहरा पहले से भोला, दिमाग पहले से शातिर और तकनीक पहले से एडवांस हो गई है।
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बेहमई 2 किलोमीटर! मील का यह पत्थर आते ही कानपुर देहात जिले का भूगोल और इतिहास करवट लेने लगता है। हरे-भरे खेतों वाले मैदान पीछे छूट जाते हैं। बीहड़ से होकर आहिस्ता-आहिस्ता रास्ता यमुना किनारे की आखिरी बस्ती की ओर बढ़ता है। सरकारी इंटर कॉलेज की एक अधबनी इमारत, ताला बंद प्राइमरी पाठशाला और खाट पर लंबी तान कर पड़े पुलिसवालों की चौकी पार करने के बाद आप खुद को जिस जगह पाते हैं, वह है बेहमई। वही गांव, जहां आज से 31 साल पहले 14 फरवरी, 1981 को देश के आपराधिक इतिहास की सबसे दुस्साहसिक इबारत लिखी गर्ई थी। तब बुरी तरह सताई गई फूलन देवी बदले की आग में जल रही थी। 23 साल की उस युवती ने 20 लोगों को गोलियों से छलनी कर अपराध की दुनिया की सारी परिभाषाएं बदल दीं।
इस एक पीढ़ी पुरानी स्मृति में अपराध और अपराधी की तस्वीर बहुत कुछ फिल्मी है। फूलन देवी और बाबा मुस्तकीम की अगुवाई में 40 डकैत नाव से नदी पार कर जालौन की सीमा से बेहमई में घुसते हैं। सबने पुलिस की वर्दी पहन रखी है और फूलन तो एसपी की ड्रेस में है। कंधे पर बंदूकें और जुबान पर गालियां। जिन्हें मारना है, उन्हें दिनदहाड़े घर से खींचा और फिर एक लाइन में खड़ाकर ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं। तीन भाई, चाचा और एक भतीजे को खोने वाले 73 वर्षीय ठाकुर श्रीराम सिंह इस वाकये को याद करते हैं, ''मेरे भाई ने मेरे बेटे को अपनी पीठ के पीछे छुपा लिया था। डकैतों ने गोली चलाई। भाई मर गया, बेटा बच गया, लेकिन डकैतों ने बेटे को फिर पकड़ा और उसके पेट में गोली मार दी, लेकिन भगवान ने मेंटर को उमर दी थी, वह बच गया। तब 18 साल के रहे मेंटर सिंह आज तहसील में कर्मचारी हैं। इस घटना की याद आज भी शहीद स्मारक के तौर पर घटनास्थल पर मौजूद है। स्मारक ही गांव का नया मंदिर है।
''इन 21 वर्षों में बेहमई बहुत नहीं बदला। यहां आज भी न तो बिजली है और न टीवी, जिनको दहेज में फ्रिज मिल गए वे आलमारी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। जालौन जाने के लिए आज भी यमुना का कछार है। इसी भुरभुरी मिट्टी से होकर टूटे पीपे के पुल से लोग मोटर साइकिल खींच ले जाते हैं।'' पहलवानी कदकाठी के 35 वर्षीय संजय सिंह बातों-बातों में जैसे दार्शनिक हुए जा रहे हैं। वे कहते हैं, ''हां, तब से गांव में कोई बड़ी वारदात नहीं हुई। नेता और अफसर तो यहां पहले भी नहीं आते थे, चार-छह साल से तो डाकुओं का आना भी बिल्कुल बंद हो गया है। वैसे भी डकैती के धंधे में रखा क्या है।''
क्या वाकई डकैती का धंधा घाटे का सौदा है? इसका जवाब देते हैं सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह, ''बड़ी से बड़ी डकैती में कोई गैंग 20 लाख रु. हासिल कर लेगा। ऊपर से बीहड़ में कष्ट सहने का जोखिम, वहीं एक अपहरण में घर बैठे एक-दो करोड़ रु. फिरौती में वसूल लो। अपराध के और भी सॉफिस्टिकेटेड तरीके हैं, इसलिए अब आपको पुराने किस्म के डकैत नजर नहीं आएंगे। अपराधी बदल रहे हैं।
तो फिर गब्बर सिंह और चाइना गेट के जगीरा जैसे फिल्मी पात्रों की जगह कौन ले रहा है! कहीं कहानी फिल्म का वह भोंदू-सा बीमा एजेंट बॉब बिस्वास तो नहीं जो सब के शक से तो परे है, लेकिन है खामोश हत्यारा या बाजीगर फिल्म का वह शाहरुख खान जो कब मोहब्बत करता है और कब कातिल बन जाता है, पता लगाना मुश्किल है। वैसे जो बातें फिल्में नहीं कह पाती हैं, वह सामने आ जाती हैं। हत्या के उन चर्चित कांडों से जिन्होंने पिछले कुछ साल में मीडिया में भूचाल लाकर रख दिया। जिन हत्याकांडों ने पिछले कुछ साल में सनसनी मचार्ई है, उसमें दो चीजें खास थीं। पहली कातिल उनका पुराना परिचित था और दूसरी वे महिलाएं मौत के घाट उतार दी गईं, जिन्होंने अपने आकाओं को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की।
जून, 2008 में नोएडा का आरुषि-हेमराज हत्याकांड एक ऐसी ही मिसाल के तौर पर उभरता है। 13 साल की एक लड़की पॉश इलाके के अपने घर में मार दी जाती है। पहली रपट यह कहती है कि नौकर हेमराज लड़की को मारकर फरार हो गया। पुलिस की एक टीम उसकी तलाश में नेपाल रवाना हो जाती है, लेकिन अगले दिन नौकर की लाश छत पर मिलती है। उसके माता-पिता लगातार गहराई से जांच करने की मांग कर रहे हैं। टेलिविजन कैमरों के सामने दहाड़ रहे हैं। मासूम को न्याय दिलाने के लिए कैंडल मार्र्च कर रहे हैं। हत्याकांड के बाद तलवार दंपती ने अपने परिवार की छवि एक हंसते खेलते परिवार की बताई थी। मौत के आठ दिन बाद नूपुर तलवार ने टेलिविजन इंटरव्यू में कहा, ''कितना हंसता खेलता परिवार था हमारा। मैं हमेशा सोचा करती थी कि मैंने पिछले जन्म में जरूर कुछ अच्छे कर्म किए होंगे, तभी मुझे इतना अच्छा परिवार मिला है।'' उन्होंने अपने पति की ऐसी छवि पेश की जो बेटी पर जान छिड़कते थे। वे कहती हैं, ''हम उसका जन्मदिन मनाने वाले थे। राजेश ने आरुषि से कहा था कि वह जितने चाहे दोस्त बुला सकती है।'' उनकी ये मासूम दलीलें सभी ने हाथों हाथ ली। पुलिस और सीबीआइ हाथ-पैर मारकर थक गईं और सीबीआइ ने तो एक बारगी मामले में क्लोजर रिपोर्ट ही फाइल कर दी, लेकिन आज की तारीख में तलवार दंपती ही नए आरोपी बनकर उभरते हैं। अदालत का आखिरी फैसला जो भी आए, लेकिन इतना तो साफ है कि आरुषि का हत्यारा उसके करीब का शख्स था और उसे मारने भाड़े का कोई सुपारी किलर नहीं आया था।
वहीं दिसंबर 2006 में नोएडा के ही निठारी कांड ने खामोश कातिल को नरपिशाच की श्रेणी तक ला दिया। जिस सुरेंद्र कोली को अदालत ने फांसी की सजा सुनाई, वह आदमखोर अपने आस-पड़ोस से बच्चे अगवा कर उन्हें खा जाता था। कोली कई साल तक यह काम करता रहा। बंगले के नीचे नाले में नर कंकालों का ढेर लग गया और कोली के एंप्लायर मोहिंदर सिंह पंढेर को खबर तक नहीं हुई। और पुलिस कहां थी? प्रकाश सिंह कहते हैं, ''पुलिस में ताकत नहीं बची है। पुलिस को नेताओं ने पूरी तरह चूस लिया है। वे अपनी जान बचा लें और नेताजी की ड्योढ़ी पर हाजिरी बजा लें, इतना ही बहुत है।'' निठारी कांड ने देश को हिलाकर रख दिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस घटना के बाद बच्चों के गुमशुदा होने के मामलों को दर्ज करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए। इस घटना ने शहरों के अभिभावकों को बच्चों की सुरक्षा को लेकर सदमे में ला दिया।
उधर मुंबई में 2011 में फिल्म अभिनेत्री लैला खान की हत्या का मामला भी एक उलझ मामला है। यह हत्याकांड भी मौत के दो साल बाद जाकर सुर्खियों में आया और तब पुलिस के कान खड़े हुए। हल्ला मचा तो पुलिस ने कश्मीर से लैला की कार और पुणे के पास फार्महाउस में दफन छह लाशें भी निकाल लीं और यहां भी हत्यारा निकला लैला की मां का दूसरा शौहर। घर में छिपे कातिल का ही शिकार मई 2006 में बीजेपी नेता प्रमोद महाजन भी बने थे।
इन सब मामलों में न सिर्फ हत्यारे आस-पास के लोग थे बल्कि उनका हत्या करने का तरीका भी नृशंष था। आरुषि हत्याकांड के साक्ष्य इशारा करते हैं कि हत्या ठंडे दिमाग से की गई। लैला खान की हत्या में संकेत मिले कि गड्ढे में सिर्फ लाशें ही नहीं फेंकी गई थीं, बल्कि कई लोग जिंदा ही दफन कर दिए गए थे। निठारी कांड की नृशंषता के बारे में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इस कांड में क्रूरता की हर हद पार कर दी गई, जिसकी कल्पना एक आम दिमाग कर सकता है। विशेषज्ञ इस क्रूरता की सड़ांध को घरों के बेडरूम तक महसूस कर रहे हैं। दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में फॉरेंसिक मेडिसिन और टॉक्सिकोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर टी.डी. डोगरा लाशों के अंदरूनी रहस्यों और वीभत्सता से हैरान हैं। इससे पहले उनका अनुभव था कि हत्याएं आम तौर पर पेशेवर हत्यारे करते हैं, मगर इन दिनों पुलिस जो लाशें अस्पताल पहुंचाती है; उनमें लाशों की आंतों में घरेलू रसायनों की मौजूदगी, क्रूर हिंसा से आई चोट और धब्बे अक्सर नजर आते हैं। वे बताते हैं, ''यह कहते हुए मुझे दुख होता है, लेकिन घरेलू हत्याएं प्रमुख प्रवृत्ति के तौर पर उभर रही हैं।''
दूसरी तरफ वे घटनाएं हैं, जहां राजनैतिक रसूख वाले लोगों के फेर में महत्वाकांक्षी लड़कियां मारी गईं। मई 2003 में लखनऊ में कवि मधुमिता शुक्ला मार दी जाती है और खून के छींटे तत्कालीन मंत्री अमरमणि त्रिपाठी के दामन पर उछलते हैं। 2011 में भोपाल में एक लड़की शेहला मसूद अण्णा के आंदोलन में भाग लेने के लिए कार में सवार होती है और कोई उसकी कनपटी पर गोली दाग देता है। यहां भी कातिल की तलाश लंबे समय तक अंधेरे में भटकती है। कई सियासी, नौकरशाह और ब्लैकमेलिंग के कोने खंगाले जाते हैं, तब कहीं जाकर शक की सुई उसकी अपनी सहेली जाहिदा परवेज पर आकर टिकती है। राज खोलती हैं तकिए के नीचे रखी डायरियां। राजस्थान में एक मामूली-सी नर्स भंवरी देवी कुछ ही साल में सियासत के गलियारों में अपनी हनक महसूस कराती है। उसकी लोकगीतों की सीडी बाजार में पहुंच जाती हैं, लेकिन अचानक वह औरत गायब हो जाती है। फिर सामने आती है एक और सीडी। इस सीडी में भंवरी और राजस्थान सरकार के तत्कालीन मंत्री महिपाल मदेरणा आपत्तिजनक स्थिति में नजर आते हैं। इस सब के बाद मदेरणा के पुलिस जांच के दायरे में आने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। राजनीतिक दबाव के बीच मामला जब सीबीआइ के पास पहुंचा, तो नहर से भंवरी का कंकाल भी मिल जाता है। भंवरी हत्याकांड की अब तक की जांच यह बताने के लिए काफी है कि यहां कत्ल बहुत ठंडे दिमाग से किया गया। हत्या कराने वालों और सुपारी लेकर कत्ल करने वालों ने अपनी तरफ से कोई सुबूत नहीं छोड़ा और बड़ी सफाई से रास्ते का कांटा दूर किया।
नेताओं को अपने रास्ते का कांटा दूर करने के लिए हमेशा कत्ल करना या कराना पड़े, ऐसा जरूरी नहीं है। कई बार उनकी घाघ चालें वह माहौल बना देती हैं, जहां लड़की के पास जिंदगी को तौबा करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। नहीं तो क्या वजह है कि 2012 में गीतिका शर्मा जैसी लड़की 23 साल की उम्र में एक सुसाइड नोट छोड़कर फांसी पर लटक जाती है! हरियाणा के मंत्री गोपाल गोयल कांडा तक कानून का हाथ तभी पहुंच पाता है, जब एक मासूम की बलि चढ़ जाती है। लेकिन नेताओं का हौसला देखिए कि इस आत्महत्या के तीन दिन बाद तक कांडा टीवी चैनलों पर न सिर्फ अपनी बेगुनाही की दलीलें पेश करते रहे, बल्कि यह भी कहते रहे कि गीतिका उनके लिए बेटी की तरह थी, लेकिन गीतिका ने अपने सुसाइड नोट में एक ऐसा वाक्य ''गोपाल गोयल कांडा अच्छा आदमी नहीं है।'' लिख छोड़ा था जो कांडा को सलाखों के पीछे ले गया। उनका राजनैतिक कद उन्हें पुलिस की गिरफ्त से बचाने में बौना साबित हुआ।
खामोश अपराधों का यह कौन-सा दौर है? अपराधी घर के इतने नजदीक कैसे आ गए? इन सवालों पर मध्य प्रदेश क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के पुलिस महानिरीक्षक संजय कुमार झा मानते हैं कि महिलाओं के खिलाफ न सिर्फ अपराध बढ़े हैं, बल्कि इन अपराधों के दर्ज होने की संख्या भी बढ़ी है। चंबल से डकैतों का सफाया करने में अहम भूमिका निभाने वाले पुलिस अफसर ने कहा, ''महिलाओं के बीच से वह कलंक खत्म हो रहा है, जो उन्हें खुद पर हो रहे अत्याचारों को समाज के सामने लाने से रोकता था। आज औरत अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को पुलिस में दर्ज कराने में सकुचाती नहीं है।'' झा मानते हैं कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को मीडिया भी पर्याप्त जगह देने लगा है, इससे भी ये अपराध ज्यादा दिखने लगे हैं।
इन दो दशक में बेडरूम के भीतर से जहां अपराधी पनपे, वहीं सड़कों पर अपराधी गैंगों के बीच होने वाला खूनी खेल काफी हद तक इतिहास के पन्नों में दब गया। एक दशक पहले तक बिहार में जहां जातीय तनाव को लेकर नरसंहार हो रहे थे तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में माफिया गिरोह एक दूसरे से खुलेआम सड़कों पर भिड़ रहे थे। मुंबई के गैंगवार हालांकि अभी तक फिल्म निर्माताओं की पसंद बने हुए हैं, लेकिन मुंबई में गैंगवार की आखिरी बड़ी झलक अगस्त, 1997 फिल्म निर्माता गुलशन कुमार की हत्या में मिली थी। छिटपुट वारदातें होती रहीं।
बिहार में 1987 से 1997 के बीच नौ बड़े नरसंहार हुए। रणवीर सेना, भाकपा माले और एमसीसी जैसे संगठनों के इस खूनी खेल में सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। 1987 में दलेलचक-बघौर में एमसीसी ने 54 लोगों की हत्या की। इसके बाद साल-दर-साल तिसखोरा, देव सहियारा, बारा, बथानी टोला, हैबसपुर, जलपुरा, कोडरमा और 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार सामने आए। इस जातीय हिंसा ने पूरे देश में बिहार की छवि एक अराजक राज्य के रूप में पेश की। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों स्वीकार किया, ''बिहारी कहलाना शर्म की बात हो गई थी, लेकिन अब विकास का काम शुरू हुआ है तो लोग बिहारी कहलाने में फख्र महसूस करने लगे हैं।'' बिहार में इस जातीय हिंसा का अंतिम अध्याय इस साल तब समाप्त हुआ जब रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया की हत्या कर दी गई। मुखिया उस खूनी युद्ध के आखिरी गवाहों में से था।
उधर पूर्वी उत्तर प्रदेश में शराब माफिया और अन्य ठेकों से जुड़े माफिया की गैंगवार भी अब गुजरे कल का हिस्सा है। खासकर पिछले शासनकाल में जिस तरह उत्तर प्रदेश में एक ही शख्स को शराब का सारा कारोबार दे दिया गया, उससे शराब ठेकों को लेकर चलने वाली गैंगवार पर खुद-ब-खुद अंकुश लग गया।
इन दोनों इलाकों से इस तरह के खूनी इतिहास की विदाई का विश्लेषण करते हुए अपराधशास्त्री और नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के प्रो. जी.एस. वाजपेयी ने कहा, ''ये अपराध इस तरह के थे कि जिन का एक सिरा व्यक्तियों में दिखाई देता था तो दूसरा सिरा समाज और राजनैतिक व्यवस्था में छिपा हुआ था। बिहार में राजनैतिक वातावरण में आए बदलाव ने जातीय हिंसा को हतोत्साहित किया।'' दरअसल बिहार में पिछले एक दशक में बहुत सारी चीजें बदली हैं, जिनमें खास चीज है नए किस्म के जातीय समीकरणों का उभार। इसके अलावा राजनीतिक दलों का जो संरक्षण रणवीर सेना या एमसीसी जैसे संगठनों को मिल रहा था, वह भी समय के साथ खत्म हुआ। वहीं उत्तर प्रदेश में जब माफिया इस हद तक ताकतवर हो गया कि उससे सत्ता के शीर्ष को ही खतरा होने लगा तो पुलिस को उसके सफाए के लिए मजबूर होना पड़ा।
वाजपेयी की मानें तो ''माफिया के खात्मे और अपराधियों के सीधे तौर पर राजनीति में आने का समय तकरीबन एक ही है।'' दरअसल यहां से उस दौर की शुरुआत हुई जब पुराने माफिया ने खादी पहन ली और सत्ता में बैठकर दूसरे तरीकों से वे आर्थिक हित साधे जिसके लिए पहले उसे खूनी गैंगवार करनी पड़ती थी। वहीं मुंबई में गैंगवार की समाप्ति की शुरुआत 1993 के बम धमाकों के साथ ही हुई। दाऊद इब्राहिम और बाकी सरगनाओं के देश से फरार होने के बाद मुंबई में माफिया का चेहरा बदल गया, लेकिन चेहरा बदलने के बावजूद अपराध तो अपराध ही है. उसके निशाने पर पहले भी बेगुनाह थे और आज भी बेगुनाह हैं। हां, दहशत की वजह इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि कातिल का चेहरा पहले से भोला, दिमाग पहले से शातिर और तकनीक पहले से एडवांस हो गई है।