शनिवार, 15 नवंबर 2014

बैंक रॉबरी, करोड़ों की लूट

हरियाणा के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी बैंक रॉबरी। लुटेरों ने ढाई फुट चौड़ी और 100 फुट लंबी खोदी सुरंग। 86 लॉकर्स से लूटे करोड़ों के जेवरात और दूसरे कीमती सामान। कहां हुई बैंक से चूक? कौन है इस मामले का मास्‍टर माइंड?

शनिवार, 6 सितंबर 2014

नायक बना खलनायक


हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी। एक चेहरा उसका भी था और उस चेहरे के पीछे भी कई चेहरे हैं। एक पति का चेहरा, एक आशिक का चेहरा, एक कातिल का चेहरा और चेहरा आरटीआई कार्यकर्ता का, लेकिन इन सारे चेहरों के पीछे का असली खेल शुरू हुआ था करीब चार महीने पहले। सनसनीखेज खुलासा।

-जितेन्द्र बच्चन
राइट टू इन्फॉरमेशन का डंडा पकड़कर उसने ऐसा झंडा गाड़ा था कि लोग उसे सचमुच सच का सिपाही मान बैठे थे, तभी एक रोज सच के इस सिपाही की कार जली हालत में मिलती है और पुलिस कार के अंदर से एक लाश बरामद करती है। लोग मान लेते हैं कि सच के सिपाही का मुंह हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिया गया और आम आदमी से लेकर नेता-कार्यकर्ता तक घटना के विरोध में धरना-प्रदर्शन करना शुरू कर देते हैं, तब किसी को क्या पता था कि यह सब एक साजिश है। प्यार, कत्ल और खुद को मारकर जी उठने की साजिश। लाखों रुपये हथियाने का फरेब। दुनिया की आंख में धूल झोंकने का नायाब तरीका। जी हां, घटना के ठीक चार महीने बाद अचानक वही मुर्दा जी उठता है और फिर इस रहस्य से पर्दा उठता है।
वाकया एक मई 2014 का है। ग्रेटर नोएडा के थाना कसाना पुलिस को खबर मिलती है कि एल्डिको गोल चक्कर के पास एक होंडा सिटी कार में आग लग गई है, लेकिन पुलिस जब तक मौके पर पहुंची, कार जल चुकी थी और उसके अंदर एक शख्स भी बुरी तरह जल चुका था। कौन था वह शख्स? किसकी कार है? यह हादसा है या कुछ और? जितने मुंह उतने सवाल शुरू हो गए। पुलिस तफ्तीश में पता चला कि कार आरटीआई और आप कार्यकर्ता चंद्रमोहन शर्मा की है और वह लाश भी उन्हीं की है। तब तो सनसनी फैल गई। शर्मा की पत्नी सविता को बुलाया गया तो उन्होंने भी शिनाख्त कर दी कि वह शव उनके पति का ही है। उनका कहना यह भी था कि यह कोई हादसा नहीं है बल्कि चंद्रमोहन शर्मा की हत्या की गई है।
पुलिस ने सविता शर्मा की तहरीर पर पांच लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी, लेकिन आम आदमी पार्टी पुलिस जांच से संतुष्ट नहीं थी। उसके कार्यकर्ताओं ने घटना के विरोध में धरना-प्रदर्शन करना शुरू कर दिया- आरटीआई के माध्यम से शर्मा कई मामलों का खुलासा कर चुके हैं। उनके कई दुश्मन थे। यह सब उन्हीं लोगों की साजिश का नतीजा है। शर्मा की हत्या की गई है। अगले रोज सविता शर्मा ने भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से गुहार लगाई- पुलिस कातिलों को नहीं पकड़ रही है। हमें इंसाफ चाहिए। उसी दिन आप संयोजक अरविंद केजरीवाल परजिनों को सांत्वना देने चंद्रमोहन के घर पहुंचे। उन्होंने बताया कि चंद्रमोहन शर्मा ने कुछ दिन पहले ही पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी कि उन्हें जान से मारने की धमिकयां मिल रही हैं, लेकिन पुलिस ने इस मामले में लापरवाही बरती।
40 वर्षीय चंद्रमोहन शर्मा ग्रेटर नोएडा के अल्फा-टू सेक्टर के मकान नंबर एफ-38 में पत्नी सविता शर्मा के साथ रहते थे। आरटीआई के जरिए कई मामलों का अब तक पर्दाफाश कर चुके थे। ऐसे में शक की सुई उनके तमाम अनजान दुश्मनों की तरफ घूमने लगी, लेकिन कार में मिले कुछ सुबूत कुछ और ही इशारा कर रहे थे। थाना कासना के इंसपेक्टर समरजीत सिंह का भी कहना था कि दाल में जरूर कुछ काला है। एसएसपी गौतम बुद्धनगर (नोएडा) डॉ. प्रतिंदर सिंह ने आखिर इंसपेक्टर सिंह के नेतृत्व में चार टीमों का गठन कर मामले की जांच शुरू करवा दी। धीरे-धीरे चार महीने बीत गए। 26 अगस्त को भी डॉ. सिंह इसी मामले से जुड़े कुछ पहलुओं पर इंसपेक्टर समरजीत से बातचीत कर रहे थे, तभी एक ताजा जानकारी मिलते ही उनकी आंखों में चमक आ गई। पुलिस की एक टीम ग्रेटर नोएडा से सैकड़ों मील दूर बेंगलुरु जा पहुंची। वहां 28 अगस्त को वह शख्स मिल गया, जिसकी पुलिस को तलाश थी। चंद्रमोहन।
अब आप सोच रहे होंगे कि एक मुर्दा जिंदा कैसे हो गया? और अगर चंद्रमोहन मरा नहीं था तो उसे नकली मौत मरने की क्या जरूरत थी? इससे भी बड़ा सवाल यह था कि कार में जिस शख्स की लाश मिली थी, वह कौन था? दरअसल, पुलिस जब इस मामले में अपना सिर खपा रही थी, तभी पता चला था कि अल्फा-टू इलाके की एक लड़की भी घटना के रोज से ही गायब है। पुलिस ने उस लड़की का मोबाइल नंबर खंगाला तो ज्ञात हुआ कि सिम कार्ड चंद्रमोहन के नाम रजिस्टर्ड है। पुलिस थोड़ा और गहराई में गई तो यह भी पता चल गया कि वह लड़की चंद्रमोहन की प्रेमिका है। दोनों कहीं छिपे हैं। कहां छिपे हैं, पुलिस यह छानबीन कर ही रही थी, तभी पता चला कि जिस रोज कार में आग लगी थी, उसी दिन से इलाके का एक भिखारी भी गायब है। एक-एक कर कड़ियां आपस में जुड़ने लगीं। सर्विलांस की मदद से पुलिस को लड़की के लोकेशन का पता चल गया। वह बेंगलुरू में थी और घरवालों से लगातार बात कर रही थी। 28 अगस्त को पुलिस मोबाइल के सहारे बंगलुरू पहुंची और चंद्रमोहन के साथ-साथ उस लड़की को भी गिरफ्तार कर लिया। अब पुलिस के आगे सबसे बड़ा सवाल यह था कि वह लाश किसकी थी?
क्लाइमेक्स सामने आया तो कई और सनसनीखेज खुलासे हुए। चंद्रमोहन पेशे से मेन्टिनेंस इंजीनियर है और कासना गांव स्थित होंडा सीएल कार कंपनी में काम करता था। ग्रेटर नोएडा के चर्चित भट्टा कांड के दौरान उसने अपनी पत्नी के साथ मिलकर राहत का काफी काम किया था, तभी पहली बार उसने आरटीआई के जरिए कई अहम जानकारियां जुटाई थीं। इसी बीच   चंद्रमोहन की दोस्ती मोहल्ले में रहने वाली एक लड़की से हो गई। दोनों में प्यार हो गया। लड़की के इश्क में पड़कर चंद्रमोहन कर्ज में डूबता चला गया। गर्लफ्रेंड की फरमाइश पूरी करते-करते वह इतना कंगाल हो गया कि कर्जदार की कतारें उसे डराने लगीं। इसी डर ने एक साजिश को जन्म दिया। चंद्रमोहन ने बीमा करा रखा था। उसे लगा कि अगर उसकी नकली मौत हो जाए तो बीमे की रकम से वह कर्जदारों के कर्ज चुका देगा। बस इसी के बाद उसने अपनी गर्लफ्रेंड को इस साजिश में शामिल कर लिया।
योजना के मुताबिक, चंद्रमोहन ने अपने ही कद-काठी के किसी मजबूर शख्स को ढूंढना शुरू किया। उसकी तलाश परी चौक इलाके के एक भिखारी पर आकर खत्म हो गई। चंद्रमोहन ने सजिश के तहत सबसे पहले पुलिस में अपने अनजान दुश्मनों के खिलाफ एक झूठी रिपोर्ट दर्ज करवाई। उसके बाद साजिश को अंजाम देने के लिए अंसल प्लाजा में पहले भिखारी का कत्ल किया, फिर उसे साले विदेश की मदद से अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर लाकर बिठा दिया। इसके बाद कार को आग के हवाले कर जमाने की नजरों में मुर्दा बन गया। सोचा था किसी को असलियत पता नहीं चलेगी और प्रेमिका के साथ ऐश करेगा, लेकिन पुलिस ने एक-एक कर सारे रहस्यों पर पड़ा पर्दा उठाकर एक नायक के खलनायक बनने की सारी हकीकत का पर्दाफाश कर दिया।
चंद्रमोहन शर्मा और उसकी प्रेमिका अब जेल में हैं, लेकिन घटना में जलाकर मारे गए मानिसक विक्षिप्त की पहचान अभी पुलिस के लिए पहेली बनी हुई है। कुछ सुबूत मिले हैं, जिसके आधार पर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर और सहारनपुर के एक व्यक्ति के रूप में हो रही है, लेकिन मृतक का कोई फोटो न होने के कारण यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि वह कहां का रहने वाला था। वहीं इस मामले का तीसरा आरोपी विदेश फरार है। पुलिस उसे तलाश रही है।

साजिश में साले ने दिया साथ

थाना कासना के सब इंस्पेक्टर विजय शर्मा के अनुसार, इस घटना को अंजाम देने के लिए चंद्रमोहन शर्मा ने अपने साले विदेश को नौकरी और पैसे देने का लालच देकर अपनी साजिश में शामिल कर लिया था। चंद्रमोहन ने विदेश को समझाया था कि उसकी मौत सबित करने के बाद सविता को जीवन बीमा की रकम, होंडा कंपनी से मौत पर मिलने वाली मोटी राशि और कंपनी में नौकरी मिल जाएगी। इन सुविधाओं से सविता अपना और बच्चों का आराम से देखभाल कर सकेगी। जब विदेश राजी हो गया तो 30 अप्रैल 2014 को तुगलपुर के पेट्रोल पंप से एक गैलन में तीन लीटर पेट्रोल खरीदकर गाड़ी में रख लिया गया। उसी पेट्रोल का एक मई की घटना में इस्तेमाल किया गया था। पुलिस ने वह गैलन बरामद कर लिया है।

सर्विलांस से मिला सुराग

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

एक थी फूलन !

दिल दहला देने वाली यह वारदात 14 साल पुरानी है। अदालत ने फूलन देवी की हत्या के मुख्य अभियुक्‍त शेर सिंह राणा के गुनाहों का हिसाब कर दिया है। उसे कातिल करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई है, लेकिन राणा के घरवालों का कहना है- फूलन की हत्या में राणा नहीं उम्मेद सिंह का हाथ है।



जितेन्द्र बच्चन
चंबल की रानी फूलन देवी। कभी चंबल उसके नाम से जाना जाता था। बीहड़ में उसकी दहशत थी, फिर चंबल से निकलकर वह जेल पहुंच गई और जेल से सीधे संसद। एक डाकू हसीना अब सांसद थी पर यह खुशी ईश्वर को मंजूर नहीं थी। 25 जुलाई 2001 को संसद भवन से घर लौटते हुए ठीक फूलन देवी के सरकारी घर के बाहर गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। 13 साल बीत गए इस मामले को। अब 13 साल बाद दिल्ली की एक अदालत ने अपना फैसला सुनाया है। फैसला यह कि फूलन देवी का कातिल कोई और नहीं बल्कि वही शेर सिंह राणा है, जिसने कत्ल के बाद खुद ही सामने आकर एलान किया था- हां, मैंने फूलन को मारा है!
1980 के दशक में खूंखार डकैत के रूप में सुर्खियों में रही फूलन देवी के डकैत बनने की कहानी किसी के भी रोंगटे खड़ी कर सकती है। फूलन की दास्तां कानपुर जिले के गुरहा का पुरवा गांव से शुरू होती है, जहां वह अपने मां-बाप और बहनों के साथ रहती थी। उत्तर प्रदेश के इस गांव में फूलन के परिवार को मल्लाह होने के चलते ऊंची जातियों के लोग हेय दृष्टि से देखते थे। इनके साथ गुलामों जैसा बर्ताव किया जाता था। फूलन के पिता की सारी जमीन उसके भाई से झगड़े में छिन गई थी। फूलन इस तरह के दमघोंटू माहौल में अंदर ही अंदर बदले की आग में जलने लगी। उसकी इस जलन को सुलगाने में मां ने भी आग में घी का काम किया।
फूलन 11 साल की हुई तो उसके चचेरे भाई मायादीन ने उसे गांव से बाहर निकालने के लिए उसकी शादी पुट्टी लाल नाम के एक बूढ़े आदमी से करवा दी। फूलन का पति उसे शारीरिक और मानिसक रूप से प्रताड़ित करने लगा। परेशान फूलन पति का घर छोड़कर वापस मां-बाप के पास आकर रहने लगी। यहां वह मेहनत-मजदूरी करने लगी, लेकिन किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था। 1980 में 15 साल की उम्र में गांव के दबंगों ने फूलन के साथ उसके मां-बाप के सामने ही गैंगरेप किया तो उसका खून खौल उठा। वह बागी बन गई। उसके तेवर देख गांववालों ने एक दस्यु गैंग को कहकर फूलन का अपहरण करवा दिया और यहीं से फूलन डाकू बन गई।
फूलन का जिस गैंग ने अपहरण किया, उसमें फूट पड़ गई। दूसरी गैंग की सरगना फूलन देवी बन गई। इसके बावजूद उसकी परेशानी कम नहीं हुई। गैंग का एक लीडर बाबू गुजर फूलन को पाना चाहता था। इसके लिए कुछ दिन बाबू ने फूलन को रिझाने की भी कोशिश की, लेकिन जब वह हाथ नहीं आई तो उसने एक रात फूलन के साथ बलात्कार करने की कोशिश की। उसी दिन फूलन से मन ही मन प्यार करने वाले गैंग के एक और मेंबर विक्रम मल्लाह ने बाबू की हत्या कर दी। उसके बाद गैंग का लीडर विक्र म बन गया। इस घटना ने एक बार फिर फूलन देवी के अंदर की आग •ाड़का दी। 15 साल की उम्र में दबंगों ने उसके साथ गांव में जो किया था, उसका बदला लेने को वह धधकने लगी। बलात्कारियों से प्रतिशोध लेने के लिए उसने बंदूक उठा ली।
1981 में बेहमई हत्याकांड के बाद फूलन देवी सुर्खियों में छा गई। सरकार की सांस फूलने लगी। हर हाल में अब वह फूलन को सलाखों के अंदर चाहती थी। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार ने चंबल की बीहड़ों में राज करने वाली दस्यु सुंदरी फूलन देवी को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रही। आखिरकार इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में फूलन से यह समझौता किया कि अगर वह आत्मसमपर्ण कर दे, तो उसे मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा और न ही उसके परिवार के किसी सदस्य को कोई नुकसान पहुंचाया जाएगा। फूलन इस शर्त पर राजी हो गई और उसने आत्मसमर्पण कर दिया। 11 साल जेल में बिताने के बाद फूलन देवी 1994 में रिहा हुई और इसी साल फिल्म बैंडिट क्वीन की शक्ल में फूलन की रॉबिनहुड छवि रुपहले पर्दे पर उतरी। 1998 में समाजवादी पार्टी ने फूलन के नाम का फायदा उठाने के लिए उसे मीरजापुर (उत्तर प्रदेश) से लोकसभा का चुनाव लड़वा दिया। चुनाव जीतकर फूलन देवी संसद बन गर्इं। बीहड़ और जेल की जिंदगी को पीछे छोड़ सांसद बनी फूलन समाज के हासिए पर जी रही महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी। वह राजनीति के शिखर पर पहुंचाना चाहती थी, लेकिन चंबल की परछाई ने उसका पीछा नहीं छोड़ा।
25 जुलाई 2001 को संसद का सत्र चल रहा था। दोपहर के भोजन के लिए संसद से फूलन 44 अशोका रोड के अपने सरकारी बंगले पर लौटीं। बंगले के बाहर सीआईपी 907 नंबर की हरे रंग की एक मारु ति कार पहले से खड़ी थी। फूलन के गेट पर पहुंचते ही कार से तीन नकाबपोशों नेबाहर निकलकर अचानक उस पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। फूलन देवी को कुल पांच गोली लगी। साथ ही उसका एक गार्ड भी घायल हो गया। इसके बाद हत्यारे उसी कार में बैठकर फरार हो गए।
यह एक राजनीतिक हत्या थी या कुछ और? पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लग पा रहा था। पुलिस फूलन के कातिल की तलाश में लगातार भटक रही थी, तभी 27 जुलाई 2001 को शेर सिंह राणा ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सबको सकते में डाल दिया। उसने कबूल किया कि उसी ने फूलन को गोलियों से उड़ाया है। एक सनसनीखेज वारदात को अंजाम देने के बाद राणा के इस सरेआम इकबालिया बयान ने पुलिस को भी हैरत में डाल दिया। पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। राणा करीब ढाई साल तिहाड़ जेल में रहा। इस दौरान उसने एक दिन बयान दिया कि तिहाड़ की सलाखें उसे ज्यादा दिन तक नहीं रोक पाएंगी और हुआ भी यही।
17 फरवरी 2004 की सुबह के 6.55 बजे का वाकया है। तिहाड़ की जेल नंबर एक के बाहर एक आॅटो आकर रुका। उसमें से पुलिस की वर्दी में एक आदमी उतरकर तमाम सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी में जेल के अंदर पहुंच गया। उसने अपना नाम अरविंद बताया और शेर सिंह राणा को हरिद्वार कोर्ट में पेशी के लिए ले जाने की इजाजत मांगी। जरूरी कागजात को ध्यान से देखे बिना ड्यूटी पर तैनात तिहाड़ के सुरक्षाकर्मियों ने राणा को नकली पुलिस के हवाले कर दिया। इस तरह 7.05 मिनट पर फूलन देवी की हत्या का मुख्य आरोपी राणा तिहाड़ की कैद से फरार हो गया।
पूरे 40 मिनट बाद जेल प्रशासन की नींद टूटी, यानी पौने आठ बजे। जेल समेत पूरे पुलिस महकमे में हड़कंप मच गया। जेल प्रशासन ने आसिस्टेंट सुपारिटेंडेंट और गार्ड को सस्पेंड कर दिया। राणा की फरारी ने सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ा दी। उसकी गिरफ्तारी के लिए हरिद्वार, रुढ़की और मुजफ्फरनगर इलाके में पुलिस की टीमों ने जबरदस्त छापामारी की। तब भी सफलता नहीं मिली तो राणा का सुराग देने वाले को 50 हजार रुपये इनाम देने की घोषणा कर दी गई, लेकिन पुलिस उसे पकड़ने में नाकाम रही। क्योंकि पुलिस शेर सिंह राणा को हिंदुस्तान में ढूंढ़ रही थी और वह हरेक को चकमा देकर अफगानिस्तान पहुंच चुका था। इसका पता तब चला जब अचानक एक वीडियो सामने आया।
शेर सिंह राणा ने दावा कि वह अफगानिस्तान में पृथ्वीराज चौहान की असली समाधि पर गया और अस्थियां लेकर वापस आ गया। राणा ने अफगानिस्तान में गजनी शहर तक के अपने सफर की बाकायदा वीसीडी तैयार की। तिहाड़ जेल से भागने के पूरे दो साल बाद 17 मई 2006 को शेर सिंह राणा कोलकाता में पकड़ा गया। उसके बाद उसे वापस दिल्ली के उसी तिहाड़ जेल में लाया गया। तब से अब तक यानी पिछले आठ साल से राणा तिहाड़ में ही कैद है। इस बीच उसने तिहाड़ से कंधार तक नाम की एक किताब भी लिखी और अब इस किताब पर एक फिल्म भी बन रही है।
लेकिन 8 अगस्त 2014 को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश भारत भूषण ने फूलन देवी की हत्या के मामले में शेर सिंह राणा को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई है। बाकी के इस मामले से जुड़े अन्य आरोपियों- धन प्रकाश, शेखर सिंह, राजबीर सिंह, विजय सिंह उर्फ राजू (राणा का भाई), राजेंद्र सिंह उर्फ रविंद्र सिंह, केशव चौहान, प्रवीण मित्तल, अमति राठी, सुरेंद्र सिंह नेगी उर्फ सूरी और सवर्ण कुमार को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। इसके अलावा एक अन्य आरोपी प्रदीप सिंह की नवंबर 2013 में तिहाड़ जेल के अंदर मौत हो गई थी।

कौन है शेर सिंह राणा? 
फूलन देवी हत्याकांड में आए फैसले के बाद शेर सिंह राणा एक बार फिर चर्चा में है। अदालत ने 38 वर्षीय राणा को उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। राजपूत जाति से ताल्लुक रखने वाले उत्तराखंड के रुढ़की निवासी राणा इससे पहले भी सुर्खियों में रहा है। उसके हर कारनामे से नाटकीयता जुड़ी रही। दिल्ली के लुटियंस जोन में तत्कालीन सांसद फूलन देवी की हत्या के दो दिन बाद राणा ने देहरादून में आत्मसमर्पण करके इल्जाम अपने सिर लिया। उसका कहना था- उसने बेहमई हत्याकांड में मारे गए 22 ठाकुरों की हत्या का बदला लेने के लिए फूलन देवी की हत्या की है। हालांकि अपनी किताब जेल डायरी में उसने पुलिस पर जुर्म कुबूल करवाने के लिए मजबूर करने का आरोप लगाया है।
रुढ़की उत्तराखंड में 17 मई 1976 को जन्मा शेर सिंह राणा का यह कोई पहला गुनाह नहीं है। इससे पहले भी 1997 में एक कार चोरी की वारदात में शेर सिंह राणा का नाम सामने आया था। वर्ष 2000 में राणा और उसके साथियों ने हथियार की नोक पर एक बैंक में 10 लाख की लूट को अंजाम दिया, जिसमें बैंक के गार्ड को राणा और उसके साथियों ने मार डाला था। बैंक लूट की इस सनसनीखेज वारदात के बाद राणा और उसके साथियों नें रुढ़की के एक बैंक में भी 15 लाख की लूट की। इस तरह साल दर साल राणा के गुनाहों की फेहरिस्त लंबी होती चली गई।
फूलन हत्या कांड में गिरफ्तार होने के बाद राणा 17 फरवरी 2004 को तिहाड़ जेल से फरार हो गया था। दो साल बाद 17 मई 2006 को कोलकाता में गिरफ्तार किया गया। राणा का कहना था कि 17 फरवरी 2004 को फिल्मी अंदाज में तिहाड़ जेल से फरार होने के बाद सबसे पहले उसने रांची से फर्जी पासपोर्ट बनवाया। नेपाल, बांग्लादेश और दुबई होते हुए अफगानिस्तान पहुंचा। जान जोखिम में डालते हुए वह 2005 में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान की कब्र खोजकर उनकी अस्थियां भारत ले आया। बाद में राणा ने अपनी मां की मदद से गाजियाबाद के पिलखुआ में पृथ्वीराज चौहान का मंदिर बनवाया, जहां उनकी अस्थियां रखी हैं। वर्ष 2012 में राणा उत्तर प्रदेश के जेवर से निर्दलीय चुनाव भीलड़ा, लेकिन हार गया। और अब वह अदालत में भी हार चुका है। अदालत ने उसे कातिल करार देते हुए 14 अगस्त 2014 को उम्रकैद की सजा सुनाई है।

सोमवार, 2 जून 2014

पत्रकारिता: चुनौतियां जस की तस

जितेन्द्र बच्चन

हिंदी पत्रकारिता के 187 साल पूरे होने के बाद भी उसके सामने चुनौतियों का जो पहाड़ पहले खड़ा था, वह आज भी जस का तस है। भारत में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता की शुरुआत 18वीं शताब्दी के चौथे चरण में कोलकाता, बंबई (मुंबई) और मद्रास (चेन्नई) कहा जाता है, से शुरू हुई थी। हिंदी के पहले समाचार पत्र के रूप में ‘उदंत मार्तण्ड’ की शुरुआत 1826 में हुई थी। इस समय तक अंग्रेरजी पत्रकारिता देश के बड़े शहरों में अपना पैर जमा चुकी थी। हिंदी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी का आइना है.‘उदंत मार्तण्ड’ साप्ताहिक समाचार पत्र था। इसमें मध्य देशीय भाषा का प्रयोग होता था। इसके संपादक पंडित जुगल किशोर ने बड़ी मेहनत से इसका प्रचार-प्रसार किया, लेकिन एक साल बाद ही 1827 में इसका प्रकाशन बंद हो गया। क्योंकि उन दिनों बिना सरकारी सहायता के किसी भी समाचार पत्र को चलाना अंसभव था।



अंग्रेजों के लिए काम करने वाली कंपनी सरकार ने मिशनरी अखबारों के लिए हर तरह की सुविधाएं दे रखी थीं। हिंदी अखबार को कोई सुविधा नहीं मिली थी। यहां तक कि डाक से भेजने की सुविधा भी नहीं थी। ‘उदंत मार्तण्ड’ इसी साजिश का शिकार होकर एक साल में ही बंद हो गया। यह बात और थी कि इसके बाद हिंदी के अलावा बांगला और उर्दू में भी अखबार निकालने की शुरुआत होने लगी थी।हिंदी पत्रकारिता की असल शुरुआत 1873 में हुई, जब भारतेंन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की शुरुआत की। एक साल बाद इसका नाम ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई अखबार शुरू हुए, जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक थे। जानेमाने अखबारों में नागरीप्रचारिणी सभा का ‘सरस्वती’ सबसे प्रमुख अखबार था। 1873 से 1900 के बीच 300 से 350 अखबारों का प्रकाशन होने लगा था। ये सभी 15 पृष्ठों के बीच होते थे और इन्हें एक तरह से विचारपत्र कहा जाता था।

उदंत मार्तंड के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846),मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850),मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861),सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867),ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867),विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयाग दूत (1871), बुंदेलखंड अखबारर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।

साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर की जाने वाली टिप्पणियों का अपना खास महत्व था। दैनिक समाचार पत्रों के प्रति कोई खास रुझान उस समय नहीं होता था। भारतेंदु की पत्रकारिता के 25 साल हिंदी पत्रकारिता के आदर्श माने जाते हैं। उनकी टीका-टिप्पणी से अंग्रेज सरकार के अफसर तक घबराते थे। एक टिप्पणी पर घबराकर काशी के मिजस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्र ‘कविवचनसुध’ को शिक्षा विभाग में लेना ही बंद करा दिया था। भारतेंदु ने सिखाया कि पत्रकार को किस तरह से निर्भीक होना चाहिए।

भारतेंदु के बाद जो पत्रकार आए, वे भी उनकी शुरुआत को आगे बढ़ाते गए। इसके साथ हिंदी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकिसत होती गई। पहले के पत्र शिक्षा और धर्म प्रचार तक ही सीमित थे। समय के साथ-साथ इसमें राजनीतिक, साहित्यक और सामाजिक विषयों को भी शामिल किया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब विभिन्न वर्गों और संप्रदाय के सुधर के लिए समाचार पत्रों की शुरुआत हो गई। इसमें धर्म का प्रचार और आलोचना दोनों को ही पूरा मौका मिलने लगा। 1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग शुरू हुआ। इस समय तक हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हो चुका था। आजादी के आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता ने अपना अहम रोल दिखाना शुरू कर दिया था।

अब तक राजनीतिक क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं की धमक बढ़ने लगी थी और ये जनमन के निर्माण में भी अपना अहम रोल निभाने लगे थे। राजनीतिक पत्रकारिता में हिंदी अखबार ‘आज’ और उसके संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का सबसे प्रमुख स्थान था। इसके बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास में तेजी आई। आजादी के बाद सरकार ने इसके विकास में अहम रोल अदा किया। धीरे-धीरे देश में तमाम तरह के अखबार और  पत्रिकाओं की धूम मच गई। इनके अपने विचार होते थे।  उस समय पाठकों के बलबूते पर ही इनका खर्च निकाला जाता था। सरकार ने सुविधाएं देनी शुरू कीं तो पत्रकारिता पर अपना अघोषित दबाव भी बना दिया। सरकार ने अखबारों को सुविधाएं देने के नाम पर सस्ते मूल्य पर कागज और विज्ञापन देना शुरू किया। यही वह खास मोड़ था जहां से अखबारों पर व्यवसायिकता हावी होने लगी।

1990 के दशक तक अखबारों में संस्करण कम निकलते थे. इसके बाद तो सभी अखबारों के नगर और कस्बे तक के संस्करण निकलने लगे। अब अखबार को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा जाने लगा। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण को देखें तो हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद सुविधओं का यहां पूरी तरह अभाव है। आज भी राज्य सरकारों ने अपनी नीति बना रखी है। चंद अखबारों और उनके पत्रकारों को सरकारी सुविधाओं का लाभ दिया जाता है। बदले में यह बंदिश होती है कि वह सरकार के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते समय सावधानी बरतें। जिन पत्रकारों को सत्ता का बरदहस्त हासिल है सही मायनों में उनको ही पत्रकार माना जाता है। बाकी के लिए न सरकार के पास कोई नीति है और न अखबार मालिकों के पास।

हिंदी समाचार पत्रों और उनमें काम करने वाले पत्रकारों के लिए कई तरह के वेतनमान आए और चले गए, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की हालत में कोई सुधार नहीं आया। अखबार का मालिक अब इसे व्यवसाय के रूप में परिवर्तित कर चुका है। सरकारी सुविधाओं का लाभ केवल समाचार पत्रों के कुछ लोगों तक ही सीमति रह गया है। मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक की हालत खराब है। सरकार के पास इसकी कोई नीति नहीं है। कहने के लिए केंद्र से प्रदेश सरकारों तक के पास सूचना विभाग का भारीभरकम बजट और स्टाफ है पर यह सब एक तरह की चाटुकारिता को भी बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इसके बाद भी हिंदी पत्रकारिता प्रगति की राह पर है। आज हिंदी ने मीडिया और इंटरनेट पर भी अपना कब्जा जमा लिया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हिंदी केवल भाषा नहीं इस देश के प्राण में बसती है।

नए युग में सरकार की उपेक्षा के बाद भी बहुत सारी पत्रिकाएं बाजार में हैं। यह प्राइवेट विज्ञापनों के भरोसे अपने को बाजार में बनाए हुए हैं। देश में अंग्रेजी का समर्थक एक बड़ा वर्ग है। जो हिंदी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाने के लिए अपने मीडिया प्लान में अंग्रेजी अखबारों को ही रखता है। जिसका व्यवसायिक नुकसान हिंदी पत्रकारिता को हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी पत्रकारिता  नई चुनौतियों से रूबरू हो। अपनी पहचान बनाए। आने वाला समय हिंदी का है, इसमें कोई दो राय नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इस दौर में हिंदी पत्रकारिता अपने को आगे बढ़ाने लायक माहौल बनाने का काम करे।

लेकिन 187 साल बाद भी हमारी चुनौतियां जस की तस हैं। आज हमें अंग्रेजी के साथ-साथ सरकारी पालने में पल रही हिंदी पत्रकारिता से भी मुकाबला करना पड़ रहा है। काम सरल नहीं है पर अंसभव भी कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भारतेंदु के पद चिन्हों पर चलते हुए हालात का मुकाबला करें। आधुनिक युग में फैली व्यवसायिकता की चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें आगे बढ़ना है। हिंदी पत्रकारिता की ताकत हिंदी और उसके पाठक हैं। हमें केवल अपनी बात सही तरह से उनके सामने प्रस्तुत करने भर की जरूरत है। हिंदी के पत्रकारों को हिंदी की आकांक्षाओं को विस्तार देने का काम करना है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाओं की ओर देख रहे हैं। जिस तरह से हिंदी ने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी पर अपनी छाप छोड़ी है, उसी तरह से हिंदी के पत्रकारों को भी अपने कदम आगे बढ़ाने हैं। जिससे उस जगह को हासिल किया जा सके जिसके हम हकदार हैं।

बुधवार, 2 अप्रैल 2014


                   बेगुनाही की सजा 14 साल


इस तरह की स्तब्ध कर देने वाली यह अकेली कहानी नहीं है. अनेक राज्यों में ऐसे कई वाकए मिल जाएंगे, जहां भयमुक्त शासन की बात करने वाली भाजपा से लेकर अल्पसंख्यकों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकारें हैं. क्या आमिर की त्रासदी उन्हें विचलित कर पाएगी?

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

                         एक सुनंदा, सैकड़ों सवाल



किसी खूबसूरत पहेली की तरह थीं सुनंदा. ऐसी पहेली, जो हमेशा सुलझी दिखती थी, लेकिन अनसुलझी ही इस दुनिया से विदा हो गर्इं. बाकी रह गए कई पोशीदा राज, सवाल और उनके जवाब.

इसे तकदीर का सितम कहें या फिर कुछ और, सुनंदा पुष्कर जीते जी जितनी सुर्खियों में रहीं, अब मौत के बाद भी वे उतनी ही सुर्खियों में हैं. कश्मीर मूल की कनाडाई नागरिक सुनंदा की जिंदादिली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महिलाओं पर लिखी प्रसून जोशी की एक कविता वह अक्सर गुनगुनाती रहतीं- ‘नारी हूं मैं, मजबूरी या लाचारी नहीं. खुद अपनी जिम्मेदारी हूं मैं, नारी हूं मैं.’ जिन मुद्दों पर बड़े-बड़े नेता बयान देने से बचते हैं, उन पर सुनंदा बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखतीं. किसी ने सपने में नहीं सोचा होगा कि इतनी तरक्कीपसंद महिला का अंत इस तरह होगा. 17 जनवरी 2014 की रात दिल्ली के होटल लीला से मौत की एक ऐसी पहेली बाहर निकली, जो अब सुलझाए नहीं सुलझ रही है. 20 जनवरी को पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने से यह बात भी साफ हो गई कि सुनंदा की मौत दवा के ओवरडोज से हुई है. यानी दवा जहर बन गई, लेकिन दवा का ओवरडोज सुनंदा ने जान-बूझकर लिया या फिर अनजाने में? इसे खुदकुशी कहेंगे या फिर गलती से हुई मौत, यह सवाल अब भी बरकरार है.

52 साल की सुनंदा की पहचान सिर्फ केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री शशि थरूर की पत्नी तक ही सीमित नहीं थी. वह एक सफल बिजनेस वुमन थीं और उनकी खुद की संपत्ति 100 करोड़ रुपये से अधिक है. हाई प्रोफाइल सुनंदा ने जीवन का सफर जम्मू कश्मीर की हसीन वादियों से शुरू कर दुबई की तपती रेत तक भरपूर जिया. इतना जिया कि लोगों को उनकी शख्शियत पर रश्क होता. सुनंदा मूल रूप से कश्मीर के सोपोर जिले के बंमई गांव की रहने वाली थीं. 1 जनवरी 1962 को जन्म हुआ था. बाद में आतंकवाद की वजह से परिवार जम्मू आ गया. पिता पुष्कर नाथ दास आर्मी में लेफ्टीनेंट कर्नल रहे. सुनंदा का एक भाई सेना में उच्चाधिकारी है और दूसरा डॉक्टर है. खुद सुनंदा मीडिया की सुर्खियों में तब आर्इं, जब तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री रहे शशि थरूर के साथ उनकी शादी हुई. इससे पहले उन्हें कोई नहीं जानता था कि वे क्या हैं और क्या करती हैं. लेकिन दिल्ली की चमक और महत्वाकांक्षा की सीढ़ी ने जल्द ही सुनंदा को दिल्ली से दुबई तक की हाई प्रोफाइल सोसाइटियों में प्रसिद्धि दिलवा दी.

19 साल की उम्र में सुनंदा की कश्मीरी ब्राह्मण संजय रैना के साथ पहली शादी हुई थी. रैना उन दिनों दिल्ली के एक होटल में कार्यरत थे और सुनंदा भी एक होटल में रिसेप्शनिस्ट थीं, लेकिन दोनों का वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं गुजरा. वर्ष 1988 में दोनों का तलाक हो गया. आजाद ख्याल की सुनंदा ने वर्ष 1989 में दिल्ली का रुख कर लिया, जहां वह हाई प्रोफाइल पार्टियों की जान बन गर्इं, फिर एक रोज अपना जहां कहीं और तलाशने के लिए सुनंदा ने दुबई की फलाइट पकड़ ली और वहां 1991 में केरल के व्यवसायी सुजीत मेनन के साथ दूसरी शादी कर ली. इसके बाद दोनों ने कुछ लोगों के साथ मिलकर एक्सप्रेशंस नामक एक कंपनी बनाई, जो कई प्रोडक्ट लांच कराए और मॉडल हेमंत त्रिवेदी, विक्त्रम फड़नीस, ऐश्वर्या रॉय के साथ कई शो भी आयोजित किए. इसके बाद सुनंदा को एक बड़ी विज्ञापन कंपनी के साथ काम करने का मौका मिला. उनकी जिंदगी का यह सबसे अच्छा दौर था. दुबई में ही उन्होंने बेटे शिव को जन्म दिया. बला की खूबसूरत तो थी हीं सुनंदा, लोग उन्हें दुबई में ब्यूटीशियन के तौर पर भी जानते थे.

लेकिन 1997 में एक रोज करोलबाग दिल्ली में सुजीत मेनन की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. शिव ने बोलना बंद कर दिया. तब वह चार साल का था. इलाज के लिए सुनंदा बेटे को कनाडा ले गर्इं और वहीं की एक आइटी कंपनी में नौकरी कर ली. 2004 में रियल स्टेट कंपनी ‘बेस्ट होम्स’ ने सुनंदा को मुडो दुबई में जनरल मैनेजर के तौर पर काम करने का प्रस्ताव मिला और वह कनाडा से फिर दुबई लौट आर्इं. तब तक उनके कई दोस्त पैसे वाले बन चुके थे. सुनंदा भी जुमेरिया पॉम के एक खूबसूरत अपार्टमेंट में रहने लगीं. बाद में एक फ्लैट जुमेरिया बीच और दो एक्जीक्यूटिव टॉवर में खरीदे. इस बीच दुबई के बिजनेस सर्किल में भी सुनंदा एक सफल नाम जाना जाने लगा. वहां की बेस्ड टेलीकॉम इंवेस्टमेंट कंपनी की वह सेल्स डायरेक्टर थीं और रेंदेवूज स्पोर्ट्स वर्ल्ड में को-वोनर भी इसके अलावा दिल्ली और मुंबई में भी उनका बिजनेस फैलने लगा.

2008 में सुनंदा इंपीरियल में हुए एक अवार्ड समारोह में शामिल होने दिल्ली आर्इं. यहां पहली बार उनकी मुलाकात शशि थरूर से हुई. दोनों दोस्त बन गए. मेल-मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया. केरल के पलक्कड़ जिले के प्रतिष्ठित थरूर परिवार से नाता रखने वाले शशि का जन्म लंदन में हुआ है. उस समय उनके पिता एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी थे. दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कॉलेज से पढ़ाई करने वाले शशि की पहली शादी कोलकाता में 1977 में पत्रकार तिलोत्तमा मुखर्जी के साथ हुई थी. उन्होंने जुड़वा बेटों ईशान और कनिष्क को जन्म दिया. बाद में शशि ने पत्नी से तलाक ले लिया और संयुक्त राष्ट्र में अंडर सेके्रटरी जनरल की पोस्ट पर नियुक्त हो गए. वहां उनकी मुलाकात संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग की उप सचिव क्रिस्टा गिल्स से हुई. शशि कैनेडी युवती क्रिस्टा से मुहब्बत कर बैठे. वर्ष 2007 में दोनों ने शादी कर ली. पर यह रिश्ता भी बहुत ज्यादा नहीं चला. जनवरी 2010 में क्रिस्टा से शशि ने तलाक ले लिया और भारत लौट आए. कांग्रेस सरकार ने उन्हें विदेश राज्य मंत्री बना दिया. इसके बाद शशि और सुनंदा के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. उनका प्रेम इतना गहरा गया कि अप्रैल 2010 में कोच्चि की इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) टीम को लेकर विवाद हुआ तो सुनंदा ने उस विवाद को खत्म करने के लिए 70 करोड़ रुपयों के इंवेस्टमेंट खुद के द्वारा किया जाने की बात स्वीकार कर ली और इसके बाद थुरूर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

22 अगस्त 2010 में सुनंदा-शशि ने शादी कर ली. इसके बाद यह जोड़ी इतनी चर्चा में आई कि अक्तूबर 2012 में एक बयान के तहत नरेंद्र मोदी ने सुनंदा पुष्कर को ‘50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड’ करार दिया और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता मुख़्तार अब्बास नकवी ने थरूर को ‘लव गुरु’ की उपाधि दे डाली. उन्होंने कहा कि अगर देश में लव मंत्रालय बनता है तो उसका पदभार शशि थरूर को दिया जाना चाहिए. दिसंबर 2013 में सुनंदा एक बार फिर अपने बयान से चर्चा में आर्इं. उन्होंने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हुए कहा कि ‘संविधान के अनुच्छेद 370 की समीक्षा होनी चाहिए.’ लेकिन 15 जनवरी 2014 को अचानक सुनंदा और थरूर के रिश्ते पर तब सवाल उठ खड़े हुए, जब थरूर के ट्विटर अकाउंट से पाकिस्तान की पत्रकार मेहर तरार को किए गए कुछ ट्वीट सामने आए. थरूर ने ट्वीट किया कि उनका अकाउंट ‘हैक’ कर लिया गया है. मेहर ने भी शोसल मीडिया के जरिए किसी ‘संबंध’ होने से इनकार किया, फिर सूत्रों के मुताबिक, सुनंदा ने उसी रोज मेहर से फोन पर बात की. इसके बाद पति-पत्नी ने एक संयुक्त बयान जारी कर दावा किया कि उनका वैवाहिक जीवन सुख से बीत रहा है और वे चाहते हैं कि यह ऐसा ही रहे.

बात बिगड़ी, ट्विटरबाजी हुई, सुनंदा और मेहर दोनों ने मोर्चा संभाला और थरूर पर अपना-अपना दावा किया, लेकिन जिस तरह से पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सुनंदा के शरीर पर 12 जख्मों के निशान मिले हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं सुनंदा को लग रहा था कि प्यार के इस त्रिकोण में वे बाजी हार रही हैं. बाद में यह बात भी सामने आई कि थरूर के मेहर के साथ कथित अफेयर से खफा सुनंदा ने लोधी रोड आवास के बजाय होटल में रहने का फैसला किया और 14 जनवरी को तिरुवनंतपुरम से दिल्ली आने के दौरान सुनंदा और थरूर के बीच फ्लाइट में और एयरपोर्ट पर भी हल्की झड़प और हाथापाई हुई थी. उसी का नतीजा है कि सुंनदा चाणक्यपुरी के होटल लीला में रहने अकेली पहुंचीं. अब होटल के कमरे से लेकर एम्स की पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक जो बातें उभरकर सामने आ रही हैं, उससे हत्या जैसी बात तो कोरी बकवास के अलावा कुछ नहीं लगती. 21 जनवरी को मामले के जांच अधिकारी एसडीएम (बसंत विहार) आलोक शर्मा ने दंडाधिकारी को अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी. उसकी प्रति थाना सरोजनी नगर के एसएचओ को भी दी गई है. शर्मा ने इस मामले में 11 लोगों से पूछताछ की, जिसमें सुनंदा के भाई राजेश और आशीष पुष्कर, बेटे शिव मेनन, निजी सचिव आरके शर्मा, कंसल्टेंट शिव कुमार, अटेंडेंट नारायण, बजरंगी और उपचार करने वाले दो डॉक्टर शामिल हैं. इसके अलावा पुलिस ने वरिष्ठ पत्रकार नलिनी सिंह से भी पूछताछ की है.

सुनंदा के पारिवारिक मित्र जॉय कहते हैं, ‘‘सुनंदा की ख्वाहिश ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना और जमकर खर्च करना था. शाहखर्ची उनकी आदत बन चुकी थी. दुबई में ही सुनंदा की दोस्ती नंदकुमार राधाकृष्णन से हुई. नंदकुमार को भारत में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया. फिर उन्हीं के जरिए सुनंदा शशि थरूर के करीब आईं. इसके बाद ही दोनों ने मिलकर कई सारे निवेश किए.’’ नादिरा बताती हैं, ‘‘कुछ बीमारी के कारण डॉक्टरों ने सुनंदा को शराब का सख्त परहेज बताया था, लेकिन दिल्ली में सुनंदा बहुत ज्यादा तनाव में आ गई थीं. संभवत: वे अत्यधिक शराब पी रही थीं.’’ सफल बिजनेस वुमन होकर भी शायद सुनंदा पति को लेकर असुरक्षित महसूस करती थीं. उसकी दोस्त फराह अली खान कहती हैं, ‘‘किसी भी पब्लिक फंक्शन में वह थरूर के साथ इसी वजह से जरूर जाती थीं. अस्वस्थ होती थीं तो भी.’’

पुलिस को सुनंदा के कमरे से अल्प्राजोलम (अल्प्रैक्स) की दो खाली स्ट्रिप्स मिली थी. सुनंदा ने शायद 27 टेबलेट्स खाई थी. एक्सपर्ट्स का कहना है कि अल्प्राजोलम की ज्यादा मात्रा से दिमाग की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है. बेहोशी और मौत संभव है. देश के सबसे अनुभवी फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स डॉ. के.एल. शर्मा का कहना है, ‘‘सुनंदा की मौत के लिए जिस अल्प्रैक्स ड्रग के ओवरडोज की बात की जा रही है, उससे उनकी मौत संभव नहीं है जब तक कि उसे किसी और दवा के साथ मिलाकर नहीं लिया जाए. सुनंदा के वजन के बराबर इंसान की मौत तभी हो सकती है जब वह कम से कम 225 टैबलेट का एकसाथ सेवन कर ले.’’ डॉ. एन.पी. सिंह (प्रोफेसर मेडिसीन) कहते हैं, ‘‘दवा के ओवरडोज से किसी की मौत होना अविश्वनीय है. क्योंकि यदि व्यक्ति दवा के सामान्य डोज से 100 गुना अधिक डोज भी ले, तब भी समय से अस्पताल पहुंचाने पर उसकी जान बच जाती है.’’

सुनंदा की मौत के पीछे किसी साजिश के सवाल पर उनके घरवाले साफ इनकार कर रहे हैं. 21 वर्षीय बेटे शिव ने भी कहा है कि शशि थरूर और सुनंदा एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे. शशि उनकी मां को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते. वहीं एसडीएम शर्मा को जांच में थरूर के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और न ही पुलिस की तहकीकात किसी नतीजे पर पहुंची. 23 जनवरी को पुलिस कमिश्नर बी. एस. बस्सी ने इस केस की जांच क्राइम ब्रांच (रोहिणी के सेक्टर-18) को सौंप दी. ऐसे में इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिला है कि आखिर सुनंदा की जान गई कैसे? क्या वे यह मान बैठी थीं कि अब थरूर से उनका भावनात्मक संबंध खत्म हो जाएगा और उन्होंने आत्महत्या कर ली या फिर इस हारती बाजी (मेहर तरार की दरार) का इतना गहरा सदमा लगा कि सोते-सोते ही वे इस दुनिया को अलविदा कह गईं?

                                        मेहर तरार की वजह से पड़ी दरार


45 वर्षीय मेहर तरार भले ही सरहद पार की हैं, लेकिन भारत और सुनंदा थरूर की जिन्दगी में ये नाम काफी पहले दस्तक दे चुका था. जुलाई 2013 में मेहर ने शशि थरूर को मेल लिखा था. वह कुछ इस तरह है- आपकी जिंदगी में जो कुछ भी हो रहा है मुझे उसके लिए बहुत अफसोस है. मैं जानती हूं कि आपके लिए यह शादी क्या मायने रखती है. आपके लिए आपकी बीवी क्या मायने रखती है. मुझे लगता है कि आपने एक दूसरे थ्रेड में गलती से कुछ लिख दिया था. मैं शमिंर्दा हूं. पिछली रात मैंने इस पर मजाक बनाया था, क्योंकि मैं कुछ भी कहने से घबरा रही थी. हम दो बार मिले हैं. हम अच्छे दोस्त बन गए हैं. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है और सच तो ये है कि आपकी दोस्त होना एक सम्मान की बात है.’’ इसका मतलब है कि दोनों के रिश्ते की खटास को जानती थीं मेहर. दूसरे ई-मेल में इस बात का उन्होंने जिक्र भी किया है, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप दोनों के बीच कोई तनाव हो. इंशाह अल्लाह आपके बीच सबकुछ ठीक हो जाए।’’ एक और मेल में मेहर लिखती हैं, ‘‘ मेरी वजह से आपकी अपनी पत्नी के साथ अनबन हो रही है. मैं क्या कहूं, मैं तो बिल्कुल भी सोचना तक नहीं चाहती हूं. मेरा बेटा बहुत छोटा है. महिला और पुरुष के रिश्तों को हमेशा शक से देखा जाता है. पता नहीं मेरे बेटे पर क्या असर पड़ेगा.’’ अंत में एक बयान में मेहर ने कहा है, ‘‘सुनंदा की शादीशुदा जिंदगी की परेशानी में मेरी कोई भूमिका नहीं थी. मैं इस मामले में साजिश का शिकार हुई हूं.’’

बुधवार, 8 जनवरी 2014

           शेखावटी में लगती है दुल्हनों की बोली !





झुंझनू, सीकर और चुरु में रुपये लेकर विवाह कराने वाले कई गिरोह सक्रिय हैं और देश के दूसरे राज्यों में भी इन्होंने अपना जाल फैला रखा है

जितेंद्र बच्चन

राजस्थान के शेखावटी का चौंकाने वाला सच! 21वीं सदी में भी यहां बेहिसाब बिकती हैं दुल्हनें! गलियों में, दुकानों में, गांवों में और शहरों में सजती है दुल्हनों की मंडी! कभी नौकरी के नाम पर, कभी शादी के नाम पर तो कभी-कभी घरों में काम करने वाली के नाम पर दूर-दराज के इलाकों से लड़कियों को यहां लाकर उनकी बोली लगाई जाती है. 50 हजार से शुरू होता है सौदा और तीन लाख तक पहुंच सकती है आखिरी बोली. महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और पंश्चिम बंगाल के छोटे-छोटे कस्बों और गांवों की लड़कियों की भेड़-बकरी की तरह होती है खरीद-फरोख्त. बालिग हो या नाबालिग, इस धंधे में लड़की की उम्र कभी आड़े नहीं आती. रकम पूरी मिलनी चाहिए, दलाल किसी भी लड़की को किसी भी उम्र और जाति के पुरुष की दुल्हन बनने पर मजबूर कर सकता है. सबसे खतरनाक तस्वीर झुंझुनू और सीकर की है, जहां रुपये लेकर विवाह कराने वाले कई गिरोह सक्रिय हैं और दूसरे राज्यों में भी उनके एजेंटों ने अपना पूरा जाल फैला रखा है.

दुल्हनों की इस खरीद-फरोख्त के काले कारोबार में राजस्थान पुलिस के कुछ अफसर भी शामिल बताए जाते हैं. अंतरराज्जीय गिरोह के लोग उन्हें बकायदा कमीशन देते हैं. तभी तो शेखावटी (झुंझुनू, सीकर और चुरु) में अब तक 5 हजार से ज्यादा दुल्हनें खरीदकर आ चुकी हैं. यह एक गैरसरकारी संस्था का आकड़ा है. रही बात सरकार और पुलिस की तो वह यह तो मानती है कि शेखावटी में दूसरे राज्यों से दुल्हनें लाई जाती हैं, लेकिन इसका कारण लिंगानुपात में कमी का होना बताया जाता है. जबकि हकीकत यह है कि यहां के तमाम कायदे-कानून दुल्हनों के दालल अपने ठेंगे पर रखते हैं. 27 दिसंबर 2013 को भी नानसा गेट (झुंझुनू) मुहल्ले में बिकने आई चार लड़कियों को पुलिस ने बरामद किया है. वाकया शाम करीब 7 बजे का है. एक युवक के साथ महाराष्ट्र की छह लड़कियां गली में घूम रही थीं. कुछ लोगों को उनके हाव-भाव पर शक हुआ. उन्होंने छिपी नजरों से पीछा करना शुरू कर दिया. युवक को अंदेशा हुआ तो वह और उसके साथ की दो लड़कियां फरार हो गए, लेकिन चार लड़कियों को लोगों ने पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया.

पूछताछ में चारों लड़कियों का कहना था कि वे अमरावती महाराष्ट्र की रहने वाली हैं और यहां अपनी एक रिश्तेदार से मिलने आई हैं, मगर पूरा पता नहीं बता पार्इं. लोगों का कहना है कि लड़कियों को अमरावती से शादी के लिए यहां लाया गया था. मुहल्ले के कुछ कुंवारे लड़कों को उन्हें दिखाने के बाद उनकी बोली लगाई जानी थी. यह तो अच्छा हुआ कि पुलिस ने पहले ही पकड़ लिया वरना दलाल आसानी से इन लड़कियों को दुल्हन के नाम पर नीलाम कर देते. इससे पहले दिल्ली पुलिस भी एक मामले का खुलासा कर चुकी है. घटना 20 सितंबर 2013 की है. मौत से संघर्ष कर रही दो वर्षीय बच्ची फलक को एक युवती एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) में दाखिल कराकर लापता हो गई. पूछने पर उसने खुद को बच्ची की मां बताया था, फिर वह लड़की को छोड़कर गायब क्यों हो गई? यह सवाल उठते ही अस्पताल प्रशासन ने थाना हौजखास के एसएचओ हरपाल सिंह को इत्तला की. उनकी जांच-पड़ताल पर पता चलाकि फलक की मां का नाम मुन्नी खातून है. वह मूल रूप से कटिहार बिहार की रहने वाली है. शराबी पति की पिटाई और आर्थिक तंगी से परेशान तीन बच्चों की मां मुन्नी एक रोज घर छोड़कर दिल्ली चली आई. उसके साथ उसकी छोटी बेटी फलक भी थी. यहां उसकी मुलाकात राजा गार्डेन की लक्ष्मी से हुई. वह लड़कियों को अपने जाल में फंसाकर उन्हें खरीदने-बेचने का धंधा करती है. उसका गिरोह राजस्थान में भी काम करता है. झुंझुनू की सरोज, कोटपुतली की कांता चौधरी और हरियाणा का शंकर लक्ष्मी के गिरोह के मेंबर हैं. ये लोग जरूरतमंद लड़कों को दुल्हन बेचने का काम करते हैं.

मुन्नी, लक्ष्मी और उसके गिरोह की असलियत जान नहीं पाई. लक्ष्मी ने पहले उसके प्रति सहानुभूति जताकर उसका दिल जीता, फिर तरह-तरह के सब्जबाग दिखाकर उसे दूसरी शादी करने के लिए राजी कर लिया. सरोज ने योजना के अनुसार झूठ बोलते हुए बताया कि भड़ौंदा में उसका भांजा हरपाल सिंह रहता है. अच्छा कमाता-खाता है. उसकी पत्नी की मौत हो चुकी है. कोई बच्चा नहीं है. तुम चाहो तो तुम्हारी शादी के लिए हम उससे बात कर सकते हैं. मासूम फलक का मुंह देखकर मुन्नी ने हामी भर दी. हरपाल के साथ उसकी शादी हो गई. सरोज ने हरपाल से मुन्नी का नाम अनीता बताया था. बाद में भेद खुला तो पता चला कि मुन्नी मुसलमान है. लक्ष्मी ने हरपाल से उसका एक लाख रुपये में सौदा किया है. हरपाल सरोज का भांजा नहीं बल्कि उसे एक दुल्हन की दरकार थी और वह किसी लड़की को खरीदना चाहता था. इसके लिए उसने गिरोह की एजेंट सरोज से संपर्क किया और सरोज ने लक्ष्मी और शंकर के साथ मिलकर मुन्नी उर्फ अनीता को हरपाल के हाथ बेच दिया.

हरपाल तब भी मस्त था, लेकन एक रोज जब पता चला कि मुन्नी ने नसबंदी करा रखी है और अब वह उसके बच्चे की मां नहीं बन सकती तो हरपाल एकदम से तिलमिला उठा- यह तो फरेब है! हमारे साथ धोखा किया गया है. मुन्नी ने सफाई देनी चाही तो हरपाल ने उसकी एक न सुनी और मार-पीटकर उसे घर से निकाल दिया. उसी लड़ाई-झगड़े में मासूम फलक गंभीर रूप से घायल हो गई. मुन्नी बेटी को लेकर दिल्ली चली आई. यहां लक्ष्मी की बड़ी लड़की ने फलक को एम्स में ले जाकर भर्ती करा दिया. सोचा था, मुन्नी अगर अस्पताल गई तो उसकी जुबान लड़खड़ा सकती है. किसी को असलियत पता चल गई तो उसके साथ-साथ वह भी पकड़ी जाएगी. पर हुआ यह कि लक्ष्मी की जो लड़की फलक को एम्स ले गई थी, वह अस्पताल से ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई और थाना हौजखास पुलिस मां की तलाश करते-करते मुन्नी खातून तक जा पहुंची. इसके बाद सारे मामले का पर्दाफाश हो गया.

दिल्ली पुलिस ने आरोपी हरपाल सिंह, लक्ष्मी, सरोज, शंकर और फरेब करने के इल्जाम में मुन्नी को •ाी गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ में आरोपियों ने बताया कि हरपाल सिंह के मामले में झुंझुनू के अमर सिंह ने दलाल की भूमिका निभाई थी. वह अब तक शेखावाटी क्षेत्र में 30-35 लड़कियों को शादी के लिए बेच चुका है. उसका संपर्क गिरोह की मेंबर कांता चौधरी से है, जो जयपुर राजस्थान की रहने वाली है. कांता के खिलाफ थाना बहरोड़ में 2, कोटपुतली में 2 और वानापुर में एक दुल्हन बेचने का मामला दर्ज है. इससे पहले एक बार थाना वसंत कुंज (दिल्ली) पुलिस कांता को गिरफ्तार कर चुकी है, लेकिन जमानत पर छूटने के बाद वह फिर से इसी धंधे में उतर गई. अब पुलिस उसके साथ-साथ दलाल अमर सिंह को भी तलाश रही है.

शेखावटी में दलालों ने पूरा जाल बिछा रखा है. करीब दो साल से लड़कियों की खरीद-फरोख्त में लगे एक दलाल ने अपना नाम-पता न उजागर करने की शर्त पर बताया, ‘‘सबसे सस्ती दुल्हन की कीमत 50 हजार रुपये है. इसमें 35 हजार रुपये बाहर के एजेंट का होता है और 15 हजार रुपये हमारा. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनकी डिमांड एकदम अलग होती है. एक बार एक अधिकारी महोदय टकरा गए. उनका कहना था, ‘दुल्हन सुंदर और कमउम्र होनी चाहिए.’ ऐसी लड़की के लिए कम से कम दो लाख रुपये खर्च हो सकते हैं. एजेंट के माध्यम से लड़की मंगाई जाती है. कई बार लड़की के किसी नाते-रिश्तेदार को भी पटाने के लिए उसे रुपये देने पड़ते हैं. ग्राहक को मंदिर या किसी होटल में लड़की दिखाई जाती है. पसंद आने पर सौदा तय होता है, फिर पूरी रकम लेकर दोनों की शादी करा दी जाती है.’’

दलाल ऐसे बता रहा था जैसे किसी गाय-भैंस को बेचने की बात कर रहा हो. हमारे पूछने पर उसने इस पेशे से जुड़े कुछ और भी खुलासे किए. ‘‘जो ज्यादा पैसे वाले होते हैं, उनकी डिमांड वेल मेंनटेन लड़की की होती है. इसीलिए मुंहमांगी कीमत अदा करते हैं. ऐसी लड़कियां फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं और कहीं भी जाने को तैयार होती हैं. यानी घर में दुल्हन और होटल में गर्लफे्रंड का बाखूबी रोल अदा करती हैं. इस तरह की लड़कियों की आपूर्ति हम दार्जिलिंग और शिलांग के एजेंटों के माध्यम से करते हैं. उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती. असम की कुछ लड़कियां इतनी तेज-तर्रार होती हैं कि शादी के लिए खुद अपना सौदा करती हैं.’’

मुकुंदगढ़ थाना प्रभारी युसुफ अली के मुताबिक, पहली जून 2013 को एक मुखबिर की सूचना पर डूंडलोद (जिला झुंझुनू) निवासी सलीम को 14 वर्षीया लड़की को बंधक बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मानव तस्करी निरोधक सेल झुंझुनू के प्रभारी अरविंद सिंह चारण ने जब उससे पूछताछ की तो पता चला कि लड़की मूल रूप से अमरावती महाराष्ट्र की रहने वाली है. करीब 10 दिन पहले सलीम उसे बहला-फुसलाकर लाया था. इस बीच एक रोज वह लड़की को लेकर सीकर गया और वहां के सुरेश ने उसे अपनी दुल्हन बनाने के लिए डेढ़ लाख में उसे खरीद लिया. एक लाख 10 हजार रुपये भी दे दिए. शेष रकम शादी के बाद देने को कहा था, लेकिन उसके पहले ही लड़की को हकीकत पता चल गई तो वह रोने लगी. उसने खाना-पानी छोड़ दिया. पुलिस ने सुरेश को भी गिरफ्तार कर लिया है. अदालत के आदेश पर दोनों आरोपी जेल में है और पीड़िता नारी निकेतन में रह रही है.

खुड़ाना के मुकेश और रोहतक की सुनीता को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. आरोप है कि सुनीता को मुकेश ने दुल्हन के लिए खरीदा था. शादी कराने वाले गिरोह ने मुकेश के परिजनों से लड़की को अविवाहित बताया था, जबकि सुनीता पहले से विवाहित है और उसका एक बच्चा भी है. सूत्र बताते हैं कि झुंझनू, सीकर और चुरु के 300 से अधिक गांवों में बंगलादेश की तमाम लड़कियां दुल्हन बनकर रह रही हैं. इन लड़कियों ने अपनी असलियत छिपाते हुए नाम और जाति बदलकर शादी की है. इसके पीछे कोई बड़ा गिरोह काम कर रहा है. चुरु के 65 वर्षीय बुजुर्ग मानिक चंद बताते हैं, ‘‘शेखावटी में लड़कियों की कमी है. भ्रूण हत्या के चलते यहां के लिंगानुपात में बहुत फर्क आया है. क्षेत्र की जो लड़कियां हैं, वे शिक्षा में अव्वल हैं और अधिकतर सरकारी नौकरी में हैं. इलाके के बेरोजगार और अशिक्षित युवकों के साथ यहां की लड़कियां शादी करने को कतई राजी नहीं होतीं. ऐसे में लड़के बिना शादी के बहुत दिन तक पड़े रहते हैं. गरीब तबके के जो लोग हैं, उनकी शादी 30-35 साल बाद भी नहीं होती. उन्हें दुल्हन मिलनी मुश्किल हो जाती है. ऐसे में शादी के लिए यहां के लोग दलालों के माध्यम से दूसरे राज्यों की लड़कियां खरीदते हैं. कुछ की घर-गृहस्थी अच्छी चल रही है, लेकिन कुछ परिवार इन बाहरी दुल्हनों की धोखाधड़ी के शिकार भी हुए हैं. कई घटनाओं में शादी के दूसरे रोज ही दुल्हन रु. और जेवरात लेकर भाग गई. इसमें दलालों की मिली•ागत होती है. पहले तो लड़केवालों को दलाल तरह-तरह के झांसे देते हैं. उसके बाद लड़की की जो कीमत लगती है, उसमें भी उनका मोटा कमीशन होता है. खासकर महिलाएं इस पेशे से ज्यादा जुड़ी हैं. पुलिस कार्रवाई के साथ-साथ समाज को भी इसके लिए जागरूक होना पड़ेगा, तभी ऐसी घटनाओं पर रोक लग पाएगी.’’

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा का दुल्हनों की खरीद-फरोख्त मामले में कहना है कि संबंधित पक्षों से रिपोर्ट मांगी गई है. राजस्थान पुलिस को आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए भी लिखा गया है. 6 जनवरी 2013 को फोन पर हुई बातचीत में झुंझनू के पुलिस अधीक्षक कुंवर राष्ट्रदीप का कहना है, ‘‘करीब पांच महीने पहले उन्होंने चार्ज लिया है. एक-दो मामले संज्ञान में आए हैं पर इसके पीछे की हकीकत यह है कि अधितर लोग पुलिस का सहयोग नहीं करते. उसके कई कारण हो सकते हैं. फिर भी हम तहकीकात करवा रहे हैं. अगर कहीं इस तरह का वाकया पेश आया है तो अवश्य कार्रवाई होगी.’’ दुल्हनों की खरीद-फरोख्त में कई थानेदारों की मिलीभगत के सवाल पर एसपी का कहना था, ‘‘अगर ऐसा है तो पीड़ित को हमसे संपर्क करना चाहिए. पुलिस का जो भी अफसर होगा, अगर वह गलत कार्यों में लिप्त है तो उसके खिलाफ मामला बनता है तो हम कड़ी कार्रवाई करेंगे.’’

सीकर के पुलिस अधीक्षक हैदर अली जैदी और चुरु के एसपी राहुल कोटोती भी इस बात को मानते हैं कि शेखावटी में दूसरे राज्यों की लड़कियां शादी के बाद यहां आई हैं. इन जिलों में लड़कियों की कमी है, इसलिए यहां के लोगों की उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, पंजाब आदि राज्यों की लड़कियों के साथ शादी करना मजबूरी है. कुछ मामले दुल्हनों की खरीद-फरोख्त का भी पता चला है. उनकी एफआइआर दर्ज करवाने के बाद आरोपियों को गिरफ्तार भी किया गया है. किंतु दोनों में से कोई भी पक्ष तभी पुलिस के पास आता है, जब कोई मामला बिगड़ जाता है. कुछ ऐसे भी मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें शादी के बाद दुल्हन नकदी और जेवरात लेकर फरार हो गई. उन केसों की जांच चल रही है. हम भी यही चाहते हैं कि कार्रवाई हो और दुल्हनों की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगे.

आरोपियों को तलाश रही पुलिस

14 नवंबर 2013 को झुंझुनू जिले के पचेरी थाना इलाके के पचेरी कलां गांव की एक दुल्हन शादी की पहली रात ही नकदी और जेवरात लेकर भाग गई. मामले के विवेचनाधिकारी सज्जन सिंह के अनुसार, मामले की तफ्तीश की जा रही है. पिचानवा गांव, चिड़ावा कस्बा जिला सीकर में भी सत्यवीर की दुल्हन शादी के 10 दिन बाद भाग गई. दुल्हन का नाम आरती था. सत्यवीर के घर वाले उसके मायके मथुरा पहुंचे. वहां पता चला कि आरती का नाम-पता सब फर्जी है. सत्यवीर और उसके घर वाले माथा पीटकर रह गए. झुंझुनू जिले के भेडकी गांव के महेश की दुल्हन बबीता भी शादी के 17 दिन बाद जेवरात आदि लेकर फरार हो गई. बाद में महेश की तहरीर पर पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर बबीता को लुधियाना से गिरफ्तार कर लिया. उसका असली नाम सुखविंदर कौर है. उसे बबीता के नाम से महेश के साथ शादी करवाने वाले बाकरा गांव के पवन जाट को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उसने दुल्हन के बदले में महेश से 1 लाख 20 हजार रुपये लिए थे. अब जेल में है.

चुरु जिले के थाना पिलानी पुलिस ने भी शादी के नाम पर ठगी करने का एक मामला दर्ज किया है. डुलानिया निवासी राजकुमार ने सूचना दी थी कि इंडोल (हिसार) के जितेंद्र, बूचावास (तारानगर) की सावित्री, रेवत और पदमपुर (गंगानगर) की पूजा ने 8 मई 2013 को उसके •ााई अमित की ज्योति नामक लड़की के साथ शादी कराने के लिए 1 लाख 30 हजार रुपये लिए थे. 12 मई को दोनों की शादी हो गई, लेकिन 13 मई की रात दुल्हन घर में रखे 60 हजार की नकदी और करीब 2 लाख के जेवरात लेकर फरार हो गई. पुलिस आरोपियों को तलाश रही है.