बुधवार, 2 अप्रैल 2014


                   बेगुनाही की सजा 14 साल


इस तरह की स्तब्ध कर देने वाली यह अकेली कहानी नहीं है. अनेक राज्यों में ऐसे कई वाकए मिल जाएंगे, जहां भयमुक्त शासन की बात करने वाली भाजपा से लेकर अल्पसंख्यकों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकारें हैं. क्या आमिर की त्रासदी उन्हें विचलित कर पाएगी?



जितेंद्र बच्चन

18 साल की उम्र और 22 धमाकों का इल्जाम! यह कारनामा किया है ‘सदैव आपके साथ’ का नारा बुलंद करने वाली दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने! रोंगटे खड़े कर देने वाली हकीकत! न कोई क्रिमिनल बैकग्राउंड और न ही किसी पाकिस्तानी-बांग्लादेशी आतंकी सगंठन से कनेक्शन, इसके बावजूद 11वीं के स्टूडेंट मोहम्मद आमिर खान को पुलिस ने आतंकवादी बनाकर जेल में ठूस दिया. करीब डेढ़ दशक सलाखों के पीछे रहने के दौरान उसे यह भी नहीं बताया कि उसके पिता का निधन हो गया और मां मस्तिष्काघात का शिकार होकर बोलने की क्षमता गंवा चुकी है. अब 14 साल बाद न्यायालय ने आमिर को बेगुनाह बताया है. इस बीच उस पर जो गुजरी और सहना पड़ा, क्या उसकी कोई भरपाई संभव है? क्यों पुलिस ने उसकी जिंदगी तबाह कर दी? उसके सबसे खूबसूरत 14 साल छीनकर सलाखों के पीछे कैद कर दिया? कौन है इसका जिम्मेदार?

तेलीवाड़ा, पुरानी दिल्ली का आमिर खान (32) अब ज्यादातर गुमसुम ही रहता है. जुल्म-ओ-सितम का कुछ ऐसा सिलसिला चला कि सलाखों के पीछे तन्हाई में काटे एक-एक दिन और रात उस पर भारी हैं. बात 1996-97 की है. इन दो वर्षों में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अलग-अलग तारीख और वक्त पर कुल 22 धमाके हुए थे. ये धमाके शहर की सड़कों, बाजारों, बसों, रेस्तारां और यहां तक कि ट्रेन में भी हुए. खुफिया एजेंसियों की तमाम माथापच्ची के बाद सरकार जिस नतीजे पर पहुंची, उसके मुताबिक इन घटनाओं के लिए बांग्लादेश और पाकिस्तान में छिपे आतंकी अब्दुल करीम टुंडा और कुछ दूसरे आतंकी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया गया. मामले की तफ्तीश दिल्ली पुलिस की तेज-तर्रार स्पेशल सेल को सौंपी गई, लेकिन दो साल बाद भी उसके हाथ खाली थे.

आमिर की मानें तो 20 फरवरी 1998 की रात वह घर से दवा लेने निकला था, तभी एक जिप्सी उसके बगल में आकर रुकी और दो-तीन लोगों ने उसे अगवा कर लिया. दरअसल वे पुलिसवाले थे. घरवालों को कुछ नहीं पता चला. आमिर को सात दिन गैरकानूनी तरीके से पुलिस हिरासत में रखा गया. इस दौरान उस पर बेइंतिहा जुल्म ढाए गए. उन दिनों की याद कर आमिर की रूह कांप उठती है, ‘‘मुझे एक थाने में ले जाया गया. आंखों पर पट्टी बांध दी. मैं कुछ पूछने की कोशिश करता तो जवाब में लात-घूंसों की बौछार होती. नंगा करके पीटा गया मुझे. उनका एक ही मकसद था कि मैं एक आतंकी हूं और मेरा ताल्लुक पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन से है. इसके लिए मैं टार्चर की जिन हदों से गुजरा, बयां करना मुश्किल है. अंत में कुछ सादे कागजातों पर दस्तखत कराए गए और मुझे जेल भेज दिया गया.’’

मां-बाप बेटे की तलाश में पागल हुए जा रहे थे. आमिर कहां है? कौन उसे उठाकर ले गया? कोई कुछ नहीं बता रहा था. वज्रपात तब हुआ, जब 28 फरवरी को आमिर अखबारों की सुर्खियां बना. पुलिस ने उसे धमाकों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. जितनी आमिर की उम्र नहीं थी, उससे ज्यादा उसके सिर इल्जाम थे. इल्जाम भी इतने बड़े और खौफनाक कि परिजनों के लिए यह खबर किसी धमाके से कम नहीं थी. दहल उठे मां-बाप. पुरानी दिल्ली के कुछ वाशिंदे भी चौंक पड़े. आतंकवादी होने की बात सामने आते ही पड़ोसियों ने भी आमिर के घरवालों से किनारा कर लिया. पिता का छोटा-मोटा बिजनेस था. उसी से गुजर-बसर होता था, लेकिन अब जिंदगी नासूर बनती जा रही थी.

आमिर के पिता को साबित करना था कि उनका बेटा आतंकी या देशद्रोही नहीं बल्कि एक छात्र है, मगर बेगुनाही मुफ्त में साबित नहीं होती. कोर्ट-कचहरी और वकील का खर्चा आता है. बेटे को छुड़ाने के लिए पिता ने सबकुछ दांव पर लगा दिया. पुलिस और अदालतों के चक्कर में माली हालत खराब होती रही, फिर वे खुद भी टूटने लगे. अंत में आमिर की गिरफ्तारी के तीन साल बाद एक रोज उनकी मौत हो गई. बेटा बाप को कंधा देता है, लेकिन बदनसीबी देखिए, पुलिस ने आमिर को पिता की मौत की खबर तक नहीं बताई. आज भी जेहन में वह तस्वीर उभरते ही आमिर की आंखें छलक पड़ती हैं, ‘‘खुदा न जाने किस गुनाह की सजा मुझे दे रहा था, लकिन आप मेरा यकीन करिए! हमारी जिंदगी में पुलिस का यह सबसे घिनौना चेहरा था. कानून से लड़ने की न मुझमें अब ताकत थी और न ही पैसों का इंतजाम. मैं भीतर ही भीतर टूटता जा रहा था.’’

पिता की मौत के बाद मुकदमों की सारी जिम्मेदारी मां पर आ पड़ी. उसके अलावा घर में और कोई नहीं था. एक बहन है, जो शादी के बाद पाकिस्तान में शिफ्ट हो चुकी है. जवान बेटे के माथे पर आतंकी होने का ठप्पा और फिर शौहर की मौत. ऐसा सदमा लगा कि शौहर के जनाजा उठने के कुछ दिन बाद ही लकवा मार गया. घर में एक जिंदा लाश बनकर रह गई मां. मामले की पैरवी करने वाला अब कोई नहीं था, नाते-रिश्तेदार पहले ही किनारा कर चुके थे. आमिर बताता है, ‘‘दिल्ली, गाजियाबाद, रोहतक और सोनीपत के सेशन कोर्ट में मुकदमों की सुनवाई शुरू हो चुकी थी. देशद्रोह और देश के खिलाफ जंग के मामले को लेकर मुझ पर कुल 22 आरोप थे. अलग-अलग शहर की घटनाएं थीं. दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा पुलिस का ज्वाइंट आॅपरेशन नहीं था, लेकिन दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने इन चारों शहरों में करीब 400 गवाहों की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी कर रखी थी.’’

तारीख पेशी पर आमिर अदालत के कटघरे में चुपचाप खड़ा रहता. सलाखों से बाहर आने की छटपटाहट तो थी, मगर दिमाग काम नहीं कर रहा था. वकील क्या कह रहे हैं और जज साहब कितना समझ रहे हैं, इसका उसे कोई इल्म नहीं. दरअसल, आमिर पर जो गुजर रही थी, उससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था. कौम का ठेका लेने वाले कई मुस्लिम संगठन हैं. मुसलमानों की तरक्कीपसंद कहलाने वाली कुछ सियासी पार्टियां भी हैं, लेकिन आमिर का दुख-दर्द बांटने कोई आगे नहीं आया. उन दिनों की याद आते ही वह सिहर उठता है, ‘‘मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस रात की भी सुबह होगी. पर अब लगता है कि देर से ही सही, मगर न्याय जरूर होता है. और यही हुआ. सोनीपत, रोहतक और गाजियाबाद की अदालतों में पेश एक भी गवाह ने पुलिस की कहानी को सही नहीं ठहराया. तीनों अदालतों ने बारी-बारी से मुझे बरी कर दिया.’’

लेकिन दिल्ली धमाकों के आरोप से जुड़े मामलों का फैसला होना अभी बाकी था. पुलिस का कहना था कि आमिर को 27 फरवरी 1998 को दिल्ली के सदर बाजार रेलवे स्टेशन सिग्नल नंबर 10 से गिरफ्तार किया गया है, लेकिन वह अदालत में इसका कोई सबूत नहीं पेश कर सकी. न ऐसा कोई चश्मदीद मिला जिसने आमिर को बम रखते देखा हो. कोर्ट में पेश पुलिस के गवाह भी मुकर गए. अब्दुल करीम टुंडा या किसी आतंकी संगठन से पुलिस आमिर के रिश्ते नहीं साबित कर सकी. नतीजतन अदालत ने एक-एक कर दिल्ली धमाकों के इलजामों से भी आमिर को बरी कर दिया. वह करीब 14 साल बाद 9 जनवरी 2012 को जेल से रिहा हो गया.

लेकिन इन 14 वर्षों ने आमिर की पूरी जिंदगी ही बदल कर रख दी. पिता को पहले ही खो चुका है, मां अब बिस्तर से उठना तो दूर ठीक से बोल भी नहीं पाती. खुद आमिर के जेहन में 14 साल का जख्म ऐसा घर कर गया है कि उसकी याददाश्त ही कमजोर हो गई है. बीच-बीच में वह अचानक सबकुछ भूल जाता है. बस कुछ याद रहता है तो वो जख्म, जो बेगुनाह होते हुए भी दिल्ली पुलिस ने उसे दिए. आमिर बताता है, ‘‘इतना बुरा दौर था कि मेरी याददाश्त भी ठीक नहीं रह पाई. पागल कर देने वाला तजुबा था. आतंकवादी होने का आरोप लगते ही तमाम मुश्किलों के बीच अपनों ने भी मुंह फेर लिया. 2008 में मां पर फालिज का हमला हुआ और ब्रेन हेमरेज की वजह से उनका हिलना, डोलना और बोलना-सुनना सब कुछ बंद हो गया. बस वह दिन-रात मुझे देखती रहती हैं.’’

आमिर को मीडिया के कुछ लोगों से भी नाराजगी है. वह कहते हैं, ‘‘आज मीडिया से बढ़कर कोई नहीं है, लेकिन मीडिया की वजह से कई बेकसूर परेशान होने से बच जाते हैं तो कई बेगुनाहों की जिंदगी तबाह हो जाती है. गाजियाबाद के एक अखबार ने मुझे पाकिस्तानी लिख दिया, जिसकी वजह से मुझे वकील मिलने मुश्किल हो गए. उस दिन वह गलत खबर नहीं छपी होती तो शायद मैं और पहले जेल से बाहर आ जाता.’’ आजाद मार्केट निवासी आमिर के एक पड़ोसी पुलिस पचड़े की डर से अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘‘आमिर के साथ ज्यादती हुई है. वह 12 दिसंबर 1997 को बहन से मिलने पाकिस्तान गया था. 13 फरवरी 1998 को वापस आया. महज इतना गुनाह था उसका और पुलिस ने उस पर पाकिस्तान में ट्रेनिंग लेने के बाद बम धमाके करने का आरोप लगाकर जेल में ठूस दिया.’’

दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील संजय भट्ट कहते हैं. ‘‘आतंकवाद से सख्ती से निबटा जाना चाहिए पर यह भी जरूरी है कि आतंक विरोधी कार्रवाई विश्वसनीय हो. इस तरह की कार्रवाई के नाम पर अनेक निर्दोष लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाए जाने के मामले सामने आ चुके हैं. आमिर खान की कहानी उसी का एक ताजा उदाहरण है.’’ रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम का कहना है, ‘‘स्पेशल सेल ने आमिर पर दिसंबर 1996 से अक्तूबर 1997 के बीच दिल्ली, रोहतक, सोनीपत और गाजियाबाद में हुए निम्न तीव्रता वाले धमाकों में शामिल होने का इल्जाम लगाया था. इनमें वे पांच धमाके भी शामिल हैं जो दिल्ली के सदर बाजार और गाजियाबाद में एक ही शाम हुए थे. यह कैसे संभव हो सकता है? एक युवक एक ही वक्त पर इतनी सारी जगह कैसे पहुंच सकता है? पुलिस अब बेनकाब हो चुकी है, लेकिन आमिर को कोई मुआवजा नहीं मिला है.’’

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का गठन 1986 में आतंकवाद निरोधी बल के तौर पर हुआ था. 90 के दशक के उत्तरार्ध में कई आतंकियों को मार गिराने और तमाम मामलों को सुलझाने के दावों के चलते इसका नाम सुर्खियों में आना शुरू हुआ, लेकिन जल्दी ही इसके कुछ अधिकारियों पर अवैध धन उगाही और फर्जी एनकाउंटर करने के आरोप लगने लगे. वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘‘दुर्भाग्य से जब भी अदालतों ने स्पेशल सेल के अधिकारियों को झूठे सबूतों के आधार पर निर्दोष लोगों को फंसाने का दोषी पाया तो उसने इन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. अगर इन्हें कठोर दंड नहीं मिलेगा तो आगे भी पुलिसवाले निर्दोष लोगों को फर्जी आतंकवादी बनाते रहेंगे.’’

पुलिस के रवैए और आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को लेकर और भी कई गंभीर सवाल उठे हैं. क्या पुलिस ने आमिर को अपनी नाकामी छिपाने के लिए पकड़ा था? अगर उसके खिलाफ एक भी ठोस सबूत नहीं था तो पुलिस ने पहले ही उसकी रिहाई का रास्ता क्यों नहीं साफ किया? सवाल कई हैं, लेकिन जवाब में पुलिस खामोश है. ‘हलचल’ ने इस बारे में कई बार अफसरों से बात करने की कोशिश की, मगर दिल्ली पुलिस ने बात करने से साफ मना कर दिया. 10 मार्च 2014 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जरूर इस मामले का संज्ञान लेते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस को नोटिस भेजकर जवाब मांगे हैं. पर इस तरह की स्तब्ध कर देने वाली यह अकेली कहानी नहीं है. अनेक राज्यों में ऐसे कई वाकए मिल जाएंगे, जहां भयमुक्त शासन की बात करने वाली भाजपा से लेकर अल्पसंख्यकों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकारें हैं. क्या आमिर की त्रासदी उन्हें विचलित कर पाएगी?
कटघरे में दिल्ली पुलिस
आमिर को लगातार 14 साल गलत तरीके से जेल में रखा गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को आमिर के खिलाफ लगाए गए सभी 12 मुकदमों का पूरा रिकॉर्ड मांगा है. आयोग के मुताबिक, ‘‘दिल्ली के तिहाड़ जेल में आमिर को हाई सिक्योरिटी सेल में रखा गया. उसे पता ही नहीं था कि इस दौरान उसके पिता की मौत हो गई और उसकी मां को ब्रेन हैंब्रेज के बाद लकवा मार गया. उन्होंने बोलने की शक्ति खो दी. इस दौरान उन्हें सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ा. यह मामला दिल्ली पुलिस के काम करने के तरीके पर गंभीर सवाल खड़े करता है.’’ हो सकता है कि पुलिस अपने बचाव में आयोग को कोई जवाब दे भी दे, लेकिन आमिर के दिल में यह टीस सदैव उठती रहेगी कि बेगुनाह होते हुए भी क्यों उसे 14 साल जेल में रखा गया? क्या उसकी जिंदगी के वे साल कोई उसे लौटा सकता है? कोई नहीं.
बिना सजा के जेल में काटे 37 साल

खंडासा, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के जगजीवन की उम्र 1968 में 27 साल थी. पुलिस ने संदेह के आधार पर उसे अपनी भाभी के कत्ल के आरोप में जेल भेज दिया. इसके बाद जगजीवन की दिमागी हालत बिगड़ने लगी. जिला अदालत ने उसे इलाज के लिए मानसिक असपताल वाराणसी भेज दिया और साथ ही एक फरमान भी जारी किया कि जेल प्रशासन और जिला पुलिस जगजीवन की दिमागी हालत के बारे में हर तीसरे महीने कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देता रहेगा, लेकिन 37 साल बीत गए पर एक बार भी अदालत में रिपोर्ट नहीं पहुंची. दरअसल, वक्त बीतने के साथ जेल प्रशासन और पुलिस के साथ-साथ अदालत भी जगजीवन को भूल गई. इस बीच कभी जगजीवन की पत्नी और बेटा उसकी खैरियत लेने जेल जाते, तो उन्हें उससे मिलने नहीं दिया जाता. क्योंकि जगजीवन को जेल से वाराणसी पागलखाने भेजने की बात खुद जेल अधिकारी तक भूल चुके थे.
जगजीवन बिना सुनवाई के सजा काटता रहा और पुलिस के साथ-साथ जेल प्रशासन चैन कीं नींद सोता रहा. 37 साल बीत गए. घरवाले भी मान चुके थे कि शायद जगजीवन का निधन हो गया, लेकिन भला हो अस्पताल प्रशासन का जिसने जगजीवन की दिमागी हालत दुरुस्त होने की रिपोर्ट जेल अधिकारियों को दी. तब अदालत और पुलिस प्रशासन को अपनी भूल का अहसास हुआ. एकदम से हड़कंप मच गया. कानून से खेलने वालों के हाथ-पैर फूल आए. पुलिस फाइलें खंगालने में जुट गई. इतना पुराना रिकार्ड कहां मिलता है. बड़ी मुश्किल से नाम-पते का एक कागज मिला, जिसके आधार पर 2006 में 37 साल बाद फिर से अदालत में जगजीवन पर मुकदमा शुरू हुआ. तब घरवालों को पता चला कि जगजीवन अभी जिंदा है. मगर पुलिस की तमाम लापरवाहियों के बावजूद जगजीवन को रिहाई नहीं मिली. जबकि वह तीन उम्रकैद के बराबर की सजा सजा काट चुका था. बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उसे जेल से रिहा किया गया. जगजीवन को आजाद हुए अब आठ साल हो चुके हैं पर 37 साल के उस नासूर ने न सिर्फ उसकी याददाश्त बल्कि उनके जज्बात तक को खत्म कर दिया है.

आठ साल बाद मिटा माथे का कलंक


कानपुर शहर एशिया का मैनचेस्टर कहा जाता है. मोहम्मद वासिफ हैदर इसी शहर के छोटे से मोहल्ले चमनगंज के रहने वाले हैं. साइंस के स्टूडेंट रहे. जल्द ही एक मल्टी नेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. परविार में माता-पिता, पत्नी और तीन छोटी-छोटी बेटियां हैं. खुशहाल जिंदगी थी, लेकिन 30 जुलाई 2001 की रात एक ऐसा तूफान आया जिसने सबकुछ तहस-नहस कर दिया. पूरा परिवार हैदर को सारी रात तलाशता रहा, लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला. बड़ी मुश्किल से वह रात गुजरी. सुबह फिर घर के लोग उनकी तलाश में निकल पड़े. बेटियां रो-रोकर हलकान हुई जा रही थीं- कहां गए पापा? कौन उठा ले गया उनको? किसी के पास कोई जवाब नहीं था. उधेड़बुन में ही सारा दिन गुजर गया. अगली रात भी कुछ नहीं पता चला, लेकिन सुबह का अखबार आते ही एक धमका-सा हुआ- पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के तीन एजेंट गिरफ्तार! उनमें से एक नाम वासिफ हैदर का भी था.
कानपुर के लोग चौंक पड़े. उन्हें इस खबर पर यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल अपनी कामयाबी के जश्न मना रही थी. गिरफ्तारी के फौरन बाद हैदर और उसके साथियों को दिल्ली लाया गया. इसके बाद अगले तीन दिन तक जो कुछ हुआ उसे सिर्फ याद करने भर से हैदर आज भी सिहर उठते हैं. थर्ड डिग्री के नाम पर ऐसे-ऐसे जुल्म ढाए गए कि हैदर टूटते चले गए. दरअसल, गिरफ्तारी के बाद हैदर को पूरे तीन दिन तक गैरकानूनी ढंग से पुलिस हिरासत में रखा गया. इस दौरान न सिर्फ सादे कागजात पर दस्तखत कराए गए बल्कि कैमरे के सामने जबरन उनका बयान भी लिया गया. इसके बाद 3 अगस्त 2001 को अदालत में पेश किया. दिल्ली पुलिस का इल्जाम था कि हैदर हिजबुल मुजाहिद्दीन के लिए काम करता है. वह कश्मीर में ट्रेनिंग ले चुका है. हैदर ने सफाई देनी चाही पर उसकी किसी ने नहीं सुनी और जेल भेज दिया गया.
शुरू के चार-पांच साल तक हैदर को जेल के हाई सिक्योरिटी वार्ड में बिल्कुल अलग-थलग रखा गया. यहां तक कि घरवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं थी. कभी तिहाड़ जेल, कभी नैनी तो कभी कानपुर सेंट्रल जेल में उसे रखा गया. घर की माली हालत खराब हो गई. पुलिस ने आतंकवादी होने की तोहमत क्या जड़ी, अपने-पराए सभी बेगाने हो गए. यहां तक कि स्कूल में भी हैदर की बेटियों को ताने मारे गए और उनका कोई दोस्त नहीं बन पाया. पता ही नही चलता था कि कब ईद आई और कब मोहल्ले के लोगों ने बकरीद मना ली. सभी उनसे कन्नी काटते. पुलिस ने हैदार पर इल्जाम ही ऐसे लगाए थे- देशद्रोह के तीन, 11 धमाके, एडीएम का मर्डर और चार्जशीट में 65 किलो आरडीएक्स की बरामदगी दिखाई थी.
लेकिन हैदर हार नहीं माने. जब वे समझ गए कि उनके केस की पैरवी कोई नहीं करेगा तो उन्होंने खुद जेल में रहने के दौरान कानून की किताबें पढ़नी शुरू कर दीं. अपने वकील की केस में मदद करने लगे. आखिर मेहनत रंग लाई. हैदर के सिर जितने भी धमाको के आरोप थे, सारे झूठे निकले. पुलिस के गवाह उन्हीं के खिलाफ बोलने लगे. आतंकवादी संगठन के साथ भी हैदर का रिश्ता साबित नहीं हो पाया. पुलिस ने हैदर के पास से जो 65 किलो आरडीएक्स की बरामदगी बताई थी, उसे भी अदालत को कभी दिखा नहीं सकी. कानुपर में 17 मार्च 2000 को दंगा हुआ था. उस दंगे के दौरान एडीएम सिटी की गोली लगने से मौत हो गई थी. इस मामले में भी पुलिस ने हैदर को दंगाई के तौर पर गिरफ्तार किया था, लकिन एक-एक कर हैदर सभी आरोपों से बरी हो गए. करीब आठ साल जेल काटने के बाद 12 अगस्त 2009 को हैदर रिहा हो गए.
देश की पुलिस ने हैदर को आतंकी बनाया था और देश के कानून ने उसे बेगुनाह बताया. लेकिन आठ साल तक हैदर और उसका पूरा परिवार देशद्रोही, आतंकवादी, कातिल और न जाने किन-किन तोहमतों के साथ घुट-घुटकर जीता रहा. जेल से रिहा होने के बाद अब वे बुरे दिन तो बीत गए पर समाज और उसके जेहन से अभी बहुतकुछ हटाना बाकी है. हैदर अब उसी की लड़ाई लड़ रहे हैं.

उत्तर प्रदेश पुलिस भी हुई बेनकाब


बिजनौर के नासिर हुसैन को उत्तर प्रदेश पुलिस ने 19 जून 2007 को ऋषिकेश के एक आश्रम से उठाया था. दो दिन बाद उसे अदालत में पेश कर बताया कि यह बहुत बड़ा आतंकवादी है. पुलिस ने इसे 21 जून को चारबाग  लखनऊ स्थित खरपत लॉज (थाना नाका) से गिरफ्तार किया है. आरोपी के पास से आरडीएक्स की बरामदगी भी दिखाई गई और उसे देशद्रोह का मुलजिम ठहराया. अदालत ने पुलिस के इल्जाम के आधार पर नासिर को जेल भेजा दिया, लेकिन 20 मार्च 2014 को आंतकवाद निरोधक कोर्ट के विशेष न्यायाधीश बीडी नकवी ने नासिर को निर्दोष बरी कर दिया. इस दौरान 6 साल 9 महीने नासिर पर जो गुजरी, उसे याद कर वह अब भी कांप उठता है.
नासिर के पिता हामिद बड़ा गांव (बिजनौर) के किसान हैं. नासिर बीकॉम कर चुका है और कंप्यूटर कोर्स भी किया है. घटना के रोज वह ऋषीकेश के मुनि आश्रम में मठ बनाने का काम कर रहा था, तभी एटीएस ने उसे दबोच लिया. मां-बाप परेशान हो उठे. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि पुलिस ने उनके निर्दोष बेटे को क्यों पकड़ लिया. नासिर के सारे सपनों पर भी पानी फिर गया. समाज ने उसके परिवार को आतंकवादी मानकर उनसे दूरी बना ली. एक-एक दिन भारी पड़ने लगा. लेकिन अदालत में मामले की सुनवाई शुरू हुई तो पुलिस को बेनकाब होते देर नहीं लगी. दरअसल पुलिस ने नासिर को लखनऊ से नहीं बल्कि ऋषीकेश के एक आश्रम से पकड़ा था. इस बात की तस्दीक आश्रम के 71 वर्षीय महंत शिवानंद ने खुद अदालत में हाजिर होकर की. अंत में नासिर रिहा कर दिया गया.
देश में आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के लिए 2012 से संघर्ष करने वाले ‘रिहाई मंच’ के संचालक अधिवक्ता मोहम्मद 

शोएब का कहना है, ‘‘नासिर के मामले में तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह, एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल और यूपी एसटीएफ के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.’’ मंच के प्रवक्ता राजीव यादव कहते है,‘‘उत्तर प्रदेश की जेलों में अब भी 62 से अधिक ऐसे बेगुनाह कैद हैं, जिनकी कोई सुनने वाला नहीं है.’’

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