मोदी : मुकद्दर का सिकंदर
नरेंद्र दामोदर मोदी। गुजरात के मुख्यमंत्री पद से भाजपा के पीएम पद के दावेदार तक और 'मौत के सौदागर' से 'विकास पुरुष' वाली छवि गढ़ने तक, मोदी ने लंबा न सही, लेकिन दिलचस्प सफर जरूर तय किया है।
13 साल में सीएम की कुर्सी तक
शुरुआत से हिंदुत्व विचारधारा की ओर झुकाव रखने वाले 62 वर्षीय मोदी के बारे में उनके सहयोगियों का कहना है कि वह अपने लक्ष्यों से डिगना नहीं जानते। हर मुश्किल को मौके में बदलने की महारत उन्हें हासिल है। वह हिंदूवादी दक्षिणपंथी राजनीति में पहले प्रचारक बने और 13 साल के अंतराल में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। कमान मिली देश के सबसे विकसित राज्य की, हालांकि तब तक उन्हें किसी तरह का कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।
'भुला देते हैं अपने मददगारों को'
इस लंबी सियासी पारी में उनकी जिंदगी को करीब से जानने वाले और आलोचक यह इल्जाम भी लगाते हैं कि मोदी उन लोगों को भुला बैठते हैं, जिनके सहारे सीढ़ी चढ़ते हैं। इनमें से एक लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन्होंने भाजपा के हीरो होने के वक्त मोदी को चमकाया, निखारा और उन्हें इस लायक बनाया कि अपने समकक्षों में खड़े होकर भी वह कतार से आगे दिखें। राजनीतिक विश्लेषक जीवीएल नरसिम्हा राव का कहना है, "वह दृढ़ता रखते हैं। ईमानदार और मेहनती हैं। वह समझौता नहीं करते, भले नतीजा कुछ हो। अस्थायी जीत के लिए मोदी खुद को नहीं बदलेंगे।"
पिता चलाते थे चाय की दुकान
मेहसाणा के एक मध्य परिवार में जन्मे मोदी के पिता दामोदरदास चाय की एक छोटी दुकान चलाते थे। उनका बेटा केतली में भरकर चाय स्टेशन में मुसाफिरों तक पहुंचाया करता था। मकान भी कोई खास नहीं था। जो उन्हें करीब से जानते हैं, बताते हैं कि वह स्कूल में औसत ही थे। लेकिन मोदी की मानें, तो वह समर्पित हिंदू रहे हैं, जिन्होंने चार दशकों तक नवरात्रि के दौरान हमेशा उपवास को चुना। जीवनी लिखने वाले निलंजन मुखोपध्याय का कहना है कि मोदी की उम्र काफी कम थी, जब उनकी शादी हो गई लेकिन गौना नहीं हुआ।
सीक्रेट रखी शादी की बात
उन्होंने अपनी शादी को हमेशा सीक्रेट रखा, वरना वह आरएसएस में प्रचारक न बन पाते। वह कई बार महीनों के लिए अपने घर गायब हो जाया करते थे। दूरदराज के इलाकों में रहते या फिर हिमालय की तरफ चले जाते। एक बार गीर के जंगलों में एक छोटे मंदिर में भी रहे। आखिरकार 1967 में उन्होंने परिवार से अलग होने का फैसला किया। वह 1971 की भारत-पाक जंग के बार औपचारिक रूप से आरएसएस में शामिल हुए थे। दिल्ली के आरएसएस दफ्तर में आए, तो उनकी दिनचर्या बड़ी कठिन थी। सवेरे 4 बजे जागना, वरिष्ठ सहयोगियों के लिए चार-नाश्ते का इंतजाम करना और पत्रों का जवाब देना। वह बर्तन भी मांजते और झाड़ू भी लगाते थे।