मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

 बदहाल अस्पताल, कंगाल होते मरीज



सरकार को अस्पतालों की सेहत में सुधार लाना है और देश के आम नागरिक के आर्थिक व सामाजिक हितों की रक्षा करनी है, तो उसे पूरे चिकित्सा तंत्र में बदलाव लाना होगा।

- जितेन्द्र बच्चन

हमारे संविधान में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है। सरकार बीच-बीच में लोक-लुभावनी घोषणाएं भी करती रहती है। इसके बावजूद देश का नागरिक स्वास्थ्य को लेकर सर्वाधिक प्रताड़ित है! तमाम सरकारी अस्पतालों की सेहत ठीक नहीं लगती। गरीबों के लिए जो सरकारी अस्पताल खोले गए हैं, उनमें से अधिकतर बीमार दिखते हैं। कहीं डॉक्टर नहीं मिलते तो कहीं विशेषज्ञ नहीं होते। भीड़ में जब तक मरीज डॉक्टर तक पहुंचता है, उनका देखने का समय खत्म हो चुका होता है। डाक्टर मिल भी जाते हैं तो दवा नहीं उपलब्ध होती। दवा होगी तो डॉक्टर साहब नहीं होते, बल्कि उनके स्थान पर कोई नर्स अथवा वार्डब्वाय काम कर रहा होता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं भारत अमृत काल में है। लेकिन 70 दशक बाद के हालात बताते हैं कि अस्पतालों में आज भी मरीजों की लंबी-लंबी कतारें लगती हैं। बहुत कुछ ऑनलाइन हो चुका है, फिर भी एम्स में ऑपरेशन के लिए तीन महीने बाद की डेट मिलती है। चिकित्सक अनुभवी और बड़े साहब के नाम से विख्यात हैं पर मरीज की नब्ज देखकर कुछ नहीं बताते। कहते हैं, ‘पहले टेस्ट कराओ फिर इलाज शुरू करेंगे।’ मतलब समझ गए न आप, सबकुछ जांच और टेस्ट रिपोर्ट पर निर्भर है। कहने को सरकारी अस्पताल है लेकिन पूरा भ्रष्टाचार है! परीक्षण या डाक्टर की फीस का कोई रेट फिक्स नहीं है। जिनती मर्जी होती है, मरीज से डॉक्टर वसूल लेता है। शायद इसीलिए अल्ट्रासाउंड की बात छोड़िए, सरकारी अस्पतालों में एक्स-रे मशीन तक खराब मिलती हैं।

डॉक्टरों की पैथोलॉजी और केमिस्ट के साथ पूरी साठ-गांठ होती है। डाक्टर दवा वही लिखता है जिसे लिखने के लिए दवा कंपनियां चिकित्सकों को महंगे तोहफे देती हैं। वह दवा अस्पताल में नहीं मिलेगी और बाहर से ली जाएगी तो केमिस्ट का बिल मरीज कर्ज लाकर चुकाए या घर-द्वार बेचे, साहब के कमीशन का एक हिस्सा पक्का रहता है। भारतीय कानून में यह अपराध है लेकिन कुछ डॉक्टरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तक कि सरकार की आयुष्मान योजना के तहत भी भ्रष्टाचार हो रहा है। कुछेक अस्पताल तो खूब चांदी काट रहे हैं।

लेकिन हम यहां सरकारी अस्पतालों की बात कर रहे हैं। जिन गरीबों के पास आयुष्मान कार्ड नहीं है, उनका मर्ज लाइलाज होता जा रहा है। गांव-देहात से शहर आकर बड़े अस्पतालों में इलाज कराने वाले मध्यम श्रेणी के लोगों की जमीन-जायदाद बिक जाती है। सरकारी डाक्टरों को अगर गांव-देहात में तैनाती दी जाती है तो वे कतई जाने को राजी नहीं होते। शहर की कमीशनखोरी उनके मुंह लग चुकी होती है। कई डॉक्टर तो नौकरी छोड़ने तक की धमकी दे देते हैं। हैरानी तो इस बात की है कि सरकार के पास भी इसका कोई बहुत अच्छा विकल्प नहीं है। वह चाहते हुए भी नफरमानी करने वाले डॉक्टर के खिलाफ कोई कार्यवाही शायद ही करती हो। अगर करे तो सामने सवाल खड़ा होता है- दूसरा डाक्टर कहां से आएगा?

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी)  के अनुसार, देश में डॉक्टर की जनसंख्या अनुपात 1:834 है। सरल शब्दों में कहें तो 834 मरीजों पर एक डॉक्टर और 476 लोगों पर केवल 1 नर्स है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होनी लाजिमी हैं। यही कारण है कि जांच में सरकारी स्तर पर दर निर्धारण का अधिकार जिला स्वास्थ्य अधिकारी को होता है फिर भी देश के अधिकांश जिलों में वर्षों से नई दरें लागू नहीं हुई हैं। इसके अलावा महंगी शिक्षा और निजी चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की अनैतिक वसूली का चक्रव्यूह भी इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार है। कई बार तो चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश को लेकर भी अनियमितताएं बरती जाती हैं! ऐसे में जब एक व्यक्ति डॉक्टर बनने के लिए लाखों रुपये खर्च कर चुका होता है तो महंगाई के इस युग में डॉक्टर बनने के बाद उससे सामाजिक होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सरकार को अस्पतालों की सेहत में सुधार लाना है और देश के आम नागरिक के आर्थिक व सामाजिक हितों की रक्षा करनी है, तो उसे पूरे चिकित्सा तंत्र में बदलाव लाना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी हैं।)


 बड़ा सवाल: बजट से पत्रकार वंचित क्यों?



सरकार बड़े गर्व से कहती है कि यह बजट विकास की ऊंची उड़ान भरता आमजन के कल्याण को समर्पित है। लेकिन इस संकल्प को साकार करने का माध्यम पत्रकार हमेशा सरकारी बजट से गायब रहता है। आखिर क्यों?

- जितेन्द्र बच्चन

सरकार कोई भी हो। केंद्र की हो या राज्य की, सभी अपने-अपने बजट को कल्याणकारी और विकासोन्मुख बताते हैं। करोड़ों की योजनाएं, गतिमान विकास, शिक्षा की हिस्सेदारी, सड़कों का जाल, स्वास्थ्य सेवाएं, महिला शक्तिकरण, कौशल विकास, युवाओं को रोजगार, सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता, किसानों को कर्ज में छूट, गरीबों को मुफ्त अनाज, अधिवक्ताओं को कल्याण निधि, पुलिस को प्रोत्साहन और विकास की ऊंची उड़ान! लेकिन पत्रकारों को क्या मिला? कुछ नहीं! आखिर ऐसा क्यों? कब तक पत्रकार उपेक्षित रहेंगे? क्यों पत्रकारों के प्रति सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं समझती? जिसके बल पर सरकार अपना सिक्का चलाती है, उसी का अनादर और अनदेखी क्यों की जाती है?

अजीब दास्तान है, सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए ये नेता जिस पत्रकार को सीढ़ी बनाते हैं, वही मंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। चुनाव आते ही बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही मुंह मोड़ लेते हैं। हमारे देश में तमाम ऐसे उदाहरण है जब सरकारी उपेक्षा के चलते समाचार पत्र-पत्रिकाएं या न्यूज चैनल बंद हो चुके हैं और उससे जुड़े हजारों पत्रकार भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। इसके बावजूद केंद्र की सरकार हो या राज्य की, बजट में पत्रकारों के लिए कुछ नहीं करती। जो सरकार अपनी योजनाओं को समाज के जन-जन तक पहुंचाने के लिए पत्रकारों को एक मजबूत आधार मानती है और कई बार उसका इस्तेमाल भी करती है, वही उसे बजट से वंचित रखती है। एक पत्रकार और उसके परिवार के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा तक का बजट में कोई प्रावधान नहीं होता।

सरकार यह तो जानती है कि अखबार हो या न्यूज पोर्टल अथवा न्यूज चैनल, बिना इनके सहयोग के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। लोकतंत्र तभी कायम रहेगा जब हमारा चौथा स्तंभ मजबूत होगा। जो बजट वह पेश कर रही है, उसका प्रचार-प्रसार भी यही करेंगे, तब भी सरकार यह भूल जाती है कि अखबार और न्यूज चैनलों में पत्रकार ही काम करते हैं। वही पत्रकार जो सर्दी, गर्मी और बरसात में कई बार बिना तनख्वाह के दिन-रात चलते रहते हैं। समाज का कोई वर्ग विकास से वंचित न रह जाए, उससे जुड़ी एक-एक खबर के लिए गांव, गली-मुहल्ले और नगर-शहर की खाक छानते हैं। अपराध को उजागर करने के लिए जान जोखिम में डालते हैं। तकनीकि और कानूनी तौर पर खबर को पुख्ता करने के लिए अधिकारियों के चक्कर काटते हैं, जिसके लिए उन पत्रकारों (कुछ को छोड़कर) को कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिलता; उन्हीं पत्रकारों को अलग-अलग वर्ग (दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक या फिर मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त) में विभाजित कर सरकार उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करती है।

अभी हाल ही में केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने अपने-अपने बजट पेश किए हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बड़े गर्व से कहते हैं कि यह बजट विकास की ऊंची उड़ान भरता आमजन के कल्याण को समर्पित है। लेकिन हम जानना चाहते हैं कि इस संकल्प को साकार करने का माध्यम पत्रकार हमेशा सरकारी बजट से गायब क्यों रहता है? यह अन्याय और अनीति है। पत्रकारों के लिए बजट में कोई प्रावधान न होने से अधिकतर पत्रकारों के बच्चे जहां उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, वहीं आर्थिक तंगी के चलते बेहतर इलाज भी उन्हें मुहैया नहीं होता। सरकार की यह दोहरी नीति महज पत्रकारों के साथ ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के साथ भी सरकारी भेद-भाव माना जाएगा।

एक बात और! चंद पत्रकारों के साथ एक कमरे में बैठकर कोई नीति निर्धारण कल्याणकारी नहीं हो सकता। माना कि सरकार चलेगी, कुछ दिन तुम्हारी सत्ता भी कायम रहेगी, लेकिन इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि तुमने सभी पत्रकारों के लिए कुछ नहीं किया। क्योंकि कोई पत्रकार छोटा-बड़ा नहीं होता, पत्रकार ‘पत्रकार’ होता है। समाज और सरकार दोनों उसकी नजर में बराबर होते हैं, तो फिर सरकार पत्रकारों के साथ भेदभाव क्यों करती है? पत्रकारों को समाज से अलग क्यों देखती है? क्यों उसके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया जाता?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 बारिश, बाढ़ और तबाही



जितेन्द्र बच्चन

शहर हो या गांव, बारिश और बाढ़ से आई तबाही का मंजर हर जगह देखने को मिल रहा है। जहां बाढ़ का प्रकोप अभी नहीं हुआ है, वहां भी लोग डरे-सहमे हुए हैं। न जाने कब तबाही अपना रुख उनकी तरफ कर ले। अचानक काल के गाल में समा गए लोग, बर्बाद हुई फसलें, तबाह हुए किसान और आसमान छूते सब्जियों के भाव ने हरेक की चिंता बढ़ा दी है। गम और गुस्से में लोगों ने सरकार को कोसना शुरू कर दिया है- जब पता है कि बारिश होगी, बाढ़ आ सकती है और तबाही का मंजर देखने को मिलेगा तो अधिकारी और कर्मचारी इतने लापरवाह क्यों बने रहते हैं? हर साल उन्हें किसी आपदा के आने का इंतजार क्यों रहता है?

सरकार यह तो अच्छी तरह से जानती है कि बारिश होगी और बाढ़ आएगी। गंदगी फैलेगी और सब्जियों के दाम भी आसमान छुएंगे, तो इससे निपटने और कीमतों को काबू में करने की आखिर पहले से तैयारी क्यों नहीं की जाती? जमाखोरों को अवसर क्यों दिया जाता है? उन पर लगाम क्यों नहीं लगाई जाती? रातोंरात रेट बढ़ाने वालों के खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं होती? हर दुकानदार अपनी मर्जी से रेट तय करेगा, क्या? व्यापारी भाईयों की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह भी अपना हित सुरक्षित रखते हुए इस बाढ़-आपदा के समय में समाज का साथ दें? एक आदर्श प्रस्तुत करें।

दरसअल, सरकार का रुख इस मामले में साफ नहीं है। वोट बैंक के चक्कर में ज्यादातर सरकारें व्यापारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाने से बचती हैं। आखिर चुनाव में ‘सहयोग’ जो मिलता है। इसीलिए सरकार महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों पर कभी पूरी ईमानदारी से काम करती नजर नहीं आती। विपक्ष को भी बैठे-बिठाए एक नया मुद्दा मिल जाता है। कार्यकर्ता आवाज बुलंद करने का नाटक शुरू कर देते हैं। धरना-प्रदर्शन होने लगता है। लेकिन आम आदमी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। गरीब और मध्यम वर्ग पहले भी मरता-खपता रहा है, आज भी तिल-तिलकर जीने को मजबूर है। फर्क आया है तो बस इतना कि पहले पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती थी। अब महीने भर सरकार के पांच किलो राशन पर गुजर-बसर करने के लिए एक गरीब लाइन में खड़ा रहता है।

यह हम नहीं कह रहे हैं, ऐसा सरकार मानती है। शासन-प्रशासन बारिश से पहले नाले-नालियों की सफाई करने की बात करता है, कहीं-कहीं कुछ काम होता भी है लेकिन जो सिल्ट या गाद निकाली जाती है, उसे बराबर उठाया नहीं जाता। बारिश के साथ वह फिर उसे नाले में समा जाती है या गालियों और सड़कों पर फैलकर गंदगी में बदल जाती है। बड़ी-बड़ी बीमारियों को न्योता देती है। सफाइकर्मी, सुपरवाइजर और नगर निगम या नगर पालिका के अधिकारी अपने पद पर बने रहते हैं। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इसी तरह नदियों का जो रास्ता है, उसमें भी तरक्की के नाम पर अवरोध उत्पन्न किया गया है। कुदरत से सरेआम छेड़छाड़ की जाती है। नदियों के किनारों तक ठेकेदारों ने प्लाट काट दिए। मकान बन गए। होटल और रेस्टोरेंट सजा दिए, सरकार के नुमाइंदे जेब में नोट भरकर कान में अंगुली डालकर सोते रहे। फिर बरसात में नदी उफनाई तो कहां जाएगी? वह अपना रास्ता तो तय करेगी न?

आबादी में पानी प्रवेश करते ही लोग बाढ़ आने की दुहाई देने लगते हैं और सरकार आपदा के नाम पर कुछ मदद-इमदाद देकर जनता का दिल जीतने की कोशिश करती है। आखिर उसे अपनी पार्टी का वोट बैंक भी तो देखना है। कोई अपने गिरेबां में नहीं झांकता। सरकार, राजनीतिक पार्टियां और शासन-प्रशासन अगर आत्ममंथन कर लें तो अगली साल बारिश और बाढ़ से होने वाली बार्बादी निश्चित ही कम की जा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होगा। होगा वह जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। आपदा में नेताओं, अधिकारियों और कर्मचारियों ने अवसर तलाशना शुरू कर दिया है। शहरों में बारिश से गिरे घर और गांवों में चौपट हुई फसल अथवा जन-धन हानि का जायजा लेने लेखपाल, तहसीलदार और राजस्व विभाग के अन्य कर्मचारी क्षेत्रवार का दौरा करेंगे, बाढ़ पीड़ितों को कितनी और कैसे आर्थिक सहायता दी जाए, उनका मुआवजा कितना तय हो, यह सरकारी बाबूओं के रहमोकरम पर निर्भर होगा।

सरकार दावा करेगी, पड़ितों का एक-एक पैसा सीधे उनके खाते में जाएगा। सारा सिस्टम ऑन लाइन कर दिया गया है, लेकिन कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनके आवेदन तो ऑनलाइन होते हैं पर जब तक उनका प्रिंट निकालकर संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को मैनुअल नहीं दिया जाता, उससे जुड़ी एक भी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ती। और उसी कार्रवाई के नाम पर शुरू हो जाता है रिश्वत का लेन-देन! सीएम हो या पीएम, करते रहे दावे पर दावे। ऊपर से लेकर नीचे तक कल भी लूट-खसोट होती थी और आज भी जारी है। इस आपदा से जो बच जाएंगे, उन्हें तरह-तरह के संक्रामण से जूझना पड़ेगा। जिन अस्पतालों में पहले से ही मरीजों को अच्छा इलाज नहीं मिलने की शिकायत है। कहीं डॉक्टर नहीं हैं तो कहीं दवाओं का अभाव है, वहां जलजमाव और बढ़ती गंदगी से जो बीमारी फैलेगी (ईश्वर करे ऐसी कोई बीमार न हो), उसका इलाज कैसे होगा? क्या सरकार इस समस्या से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)


 चरणों में सरकार



-जितेन्द्र बच्चन

कई राज्यों में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। ऐसे में अब नेताओं को फिर से जनता जर्नादन दिखने लगी है। हर शख्स में उसे भगवान नजर आने लगे हैं। ताजा उदाहरण मध्य प्रदेश का है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सीधी जिले के पेशाब पीड़ित आदिवासी दशमत रावत को भोपाल बुलाया। कुर्सी पर बिठाया, उनके पैर धोए, तिलक लगाया, फूल-माला पहनाई और बगल में बैठकर नाश्ता किया। उसके बाद साल ओढ़ाकर कहा कि ‘अब आप हमारे दोस्त हैं। जनता ही मेरे लिए भगवान है।’ और माफी मांगी।

दरअसल, भाजपा नेता प्रवेश शुक्ला द्वारा दशमत रावत पर पेशाब किए जाने का वीडियो मंगलवार को सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। उसके बाद सियासत गरमा गई। पुलिस ने भारतीय दंड संहिता और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत मामला दर्ज कर बुधवार, 5 जुलाई को प्रवेश शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया। गुरुवार को मुख्यमंत्री ने दशमत को सीधी से भोपाल बुलाकर मुलाकात की। सवाल उठता है- पेशाब पीड़ित का पैर धोना मानवता है या राजनीति? क्या महज पैर धोने से पापा धुल जाता है? शिवराज जी, यह जनता है। वह इस बात को अच्छी तरह समझती है कि आपकी आंखों में पश्चाताप नहीं वोट बैंक की चिंता नजर आ रही है। आदिवासियों के लिए यह प्यार नहीं, बल्कि जनता का डर है। क्योंकि एक बार आदिवासी हाथ से निकल गए तो मध्य प्रदेश में भाजपा को कोई सत्ता नहीं दिला सकता।

मध्य प्रदेश में आदिवासियों की करीब डेढ़ करोड़ आबादी है, लेकिन 2018 के बाद से आदिवासी लगातार भाजपा से दूर होते जा रह हैं। राज्य की विधानसभा की 47 सीटें आदिवासी मानी जाती हैं, जिनमें से 31 सीटों पर पिछली बार कांग्रेस ने कब्जा किया था और भाजपा 18 सीटों पर सिमट कर अंतत: राज्य में हार गई थी। यह अलग बात है कि बाद में जोड़-तोड़ कर चौहान साहब ने सरकार बना ली। तब से अब तक भाजपा आदिवासियों को लुभाने में लगी है। आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले तीन महीने में चार बार मध्य प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। पिछले दिनों वह शहडोल गए तो पकारिया में आदिवासी बच्चों को दुलारते-पुचकारते भी नजर आए थे, लेकिन भाजपा के प्रवेश शुक्ला ने पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इस घटना के बाद से आदिवासी समाज अब भाजपा के हर कार्यकर्ता को नफरत और हिकारत से देखने लगा है। भाजपा और सीएम शिवराज से उनके एक-एक सवाल का जवाब देते नहीं बन रहा है।

दे भी नहीं सकते। क्योंकि दशमत रावत के साथ जो कुछ हुआ, वह बताता है कि जमाना कहीं भी पहुंच जाए, लेकिन कुछ लोगों के दिमाग अब सीधे नहीं हैं। वह इंसान को इंसान नहीं समझते। वायरल वीडियो में भाजपा का प्रवेश शुक्ला मुंह में सिगरेट लगाकर आदिवासी दशमत रावत पर पेशाब कर रहा था। मामला संज्ञान में आया तो पुलिस से छिपने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ सरकार की थू-थू होने लगी तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया। आनन-फानन में सरकार ने आरोपी के घर पर बोल्डर भी चलवा दिया। उससे भी बात नहीं बनी तो सीएम शिवराज सिंह चौहान ने पीड़ित को भोपाल बुलाकर उनके पैर धोए। शनिवार को सीधी के कलेक्टर साकेत मालवीय ने बताया कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर दशमत रावत को पांच लाख रुपये की सहायता राशि और आवास निर्माण के लिए डेढ़ लाख रुपये की आर्थिक सहयता भी उपलब्ध करा दी गई है। कांग्रेस के कमलनाथ इस सबको नौटंकी बताते हुए पूछते हैं कि चुनाव से पहले क्यों नहीं याद आते भगवान?

लेकिन हमारा किसी एक पार्टी से कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस हो भाजपा, सियासत के हमाम में सभी नंगे हैं। सौ की सीधी एक बात- दशमत रावत पर पिछले दिनों जो गुजरी है, उसे पूरा आदिवासी समाज शायद ही भूल पाए… और यही डर अब भाजपा के गले की हड्डी बन चुका है। क्योंकि सवाल पैर धोने का नहीं है। सवाल इसका है कि भाजपा के प्रवेश शुक्ला ने न्याय, बराबरी और बंधुत्व की अवधारणा पर पेशाब कर दिया। शिवराज चौहान इसकी दुगंर्ध पैर धोकर नहीं मिटा सकते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)