पत्रकारों पर बढ़ता हमला सरकारी उपेक्षा का नतीजा
जितेन्द्र बच्चन
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आज बहुत दबाव में दिखता है। निष्पक्ष एवं स्वतंत्र पत्रकारिता करना एक जोखिम भरा काम हो चुका है। खोजी खबर लिखनी है तो जान हथेली पर लेकर चलना पड़ेगा। उपेक्षित और थका-हारा महसूस करना आम बात है। इसके बावजूद हम अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ते। हर मोर्चे पर डटे रहते हैं। यहां तक कि आचार संहिता लागू होने के बावजूद पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। ताजा उदाहरण रोंगटे खड़े कर देता है। जौनपुर में भाजपा कार्यकर्ता व पत्रकार आशुतोष श्रीवास्तव की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। रायबरेली में केंद्रीय गृह मंत्री व बीजेपी नेता अमित शाह की रैली में न्यूज चैनल ‘मॉलिटिक्स’ के पत्रकार राघव त्रिवेदी को बुरी तरह मारा-पीटा गया। गाजियाबाद में हिंदी दैनिक ‘आप अभी तक’ के दफ्तर में दबंगों ने हमला कर दो पत्रकारों सत्यम पंचोली और सुभाष चंद को जख्मी कर दिया।
तकलीफ तब और बढ़ जाती है जब इन सभी मामलों में एफआईआर दर्ज होने के हफ्ते-दो हफ्ते बाद भी कोई गिरफ्तारी नहीं हुई। जौनपुर के आशुतोष श्रीवास्तव हत्याकांड मामले का मास्टर माइंड पकड़ा भी गया तो पुलिस कस्टडी से फरार हो गया। बाकी के चार आरोपी पहले से नहीं मिल रहे हैं। हलांकि पुलिस कस्टडी से फरार मुख्य आरोपी दो दिन बाद फिर महाराष्ट्र से पकड़ लिया गया है, लेकिन पुलिस की यह बड़ी लापरवाही थी।
सवाल उठता है कि सरकार पत्रकारों के मामलों में चुप क्यों रहती है? सरकार की यह उपेक्षा पत्रकारों को परोक्ष और अपरोक्ष दोनों तरह से नुकसान पहुंचाती है। पुलिस को जहां मनमानी करने की सह मिल जाती है, वहीं अपराधियों के हौंसले बुलंद हो जाते हैं। कई बार तो पत्रकारों के खिलाफ पुलिस अपराधियों का गठजोड़ काम करने लगता है। कहावत है, ‘चोर-चोर मौसेरे भाई!’ अपराध और भ्रष्टाचार में लिप्त कुछ पुलिस वाले कई बार पत्रकारों को नीचा दिखाने के लिए अपराधियों को अपना मोहरा बना लेते हैं। यह प्रवृति स्वस्थ पत्रकारिता ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है।
दरअसल, पुलिस और प्रशासन को जिस पत्रकार की खबर पर नाज होना चाहिए और जिसके दम पर पुख्ता कार्यवाही की जानी चाहिए, उसकी ये अधिकारी परवाह ही नहीं करते। कहीं से खबर की कतरन आ भी गई या सोशल मीडिया पर किसी ने नोटिस ले लिया तो उसे भी पुलिस और प्रशासन के अधिकारी रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं। ऐसे में अपराधी बेखौफ हो जाता है। भूमाफिया फलने-फूलने लगता है। ड्रग्स का धंधा फिर चल पड़ता है और मानव तस्करी तक के एजेंट गली-मुहल्ले में पनपने लगते हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खबरों को देखकर अपराध पर जितनी तेजी से लगाम लगाने को उत्सुक दिखते हैं, उतनी ही यहां की पुलिस पत्रकारों की उपेक्षा करती है। इसी का नतीजा है कि पिछले वर्षों के दौरान पत्रकारों पर दबाव बढ़ने, उन पर नियंत्रण के प्रयास करने और पत्रकारिता पर सीमाएं लगाने की घटनाएं सामने आ रही हैं। पत्रकारों पर हमले और भीड़ द्वारा की गयी हिंसा के खतरे भी बढ़ रहे हैं। यहां तक कि डिजिटल मोर्चे पर भी पत्रकारों को अपना बचाव करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। ऐसे में पत्रकारिता का धर्म कोई निभाए भी तो कैसे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)