शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

मुगालते में नहीं मतदाता : जितेन्द्र बच्चन



दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर बढ़ी राजनीतिक सरगर्मी। कांग्रेस, भाजपा और आप के नेता कर रहे अपने-अपने मुद्दों को लेकर जीत का दावा। जनता मांग रही वोटों का हिसाब- कहां थे पांच साल? चुनाव का वक्त आया, तो फिर आ गए लोभ-लालच का मायाजाल फैलाने! सत्ता तुम्हारी बपौती नहीं है और न ही अब हम तुम्हारी गफलत में आने वाले हैं। हम वोट उसे देंगे, जो हमारे दु:ख-दर्द का साथी होगा।



चुनाव का बिगुल बजते ही तमाम दलों और पार्टियों के नेता अपने-अपने इलाकों में मशगूल हो गए हैं। भाई-बहनों और चाचा-ताऊ को संबोधित करने लगे हैं। उनकी बातें सुनकर कुछ औरतें और बुजुर्ग आपस में कानाफूसी करते हैं, इस सख्श को पहले यहां कभी नहीं देखा। कौन है ये? तभी गली-मुहल्ले का कोई पार्टी कार्यकर्ता आकर बताता है, ‘ताई, ये अपने नेताजी हैं। इस बार यही यहां से चुनाव में खड़े हैं। पहचान लो, इन्हीं को वोट देना। निशान है हाथ का पंजा।’ तभी बगल में खड़े एक अन्य युवक ने असमंजस में पड़े बुजुर्ग से कहा, ‘ताऊ, तुम इन कांगे्रसियों के चक्कर में मत आना। सारी जिंदगी तुम्हें कीचड़ में रखा और खुद मलाई चाभते रहे। अब उसी कीचड़ में कमल खिलने वाला है। भाजपा तुम्हें सारे सुख देगी। हम भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देंगे। अयोध्या में राम मंदिर बनाएंगे, रामराज लाएंगे।’ बगल में खड़े बेरोजगार भैया से नहीं रहा गया। वह बगावती लहजे में दहाड़ा, ‘तुम क्या रामराज लाओगे, तुम्हारे नेता तो खुद ही राम के नाम पर रोटी के जुगाड़ में लगे रहते हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर भ्रष्टाचार का आरोप है। खुदगर्जी में बुजुर्ग नेता को भी किनारे कर दिया जाता है। इस बार हमारी सरकार बनेगी। आम आदमी पार्टी जिंदाबाद!’

लेकिन आम आदमी कौन है? इसके जवाब में कई मत हैं और हर कोई अपनी-अपनी तरह से परिभाषित करता है। पर इतना तय है कि इस बार के चुनाव में कांटे की टक्कर है। आप की सेंध लगाने की डर से कांग्रेस डरी हुई है। खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित संशय में हैं। पिछले दिनों उन्होंने कहा भी- ‘अगली बार मैं मुख्यमंत्री बनूंगी, यह निश्चित नहीं है।’ आम लोग भी एकराय नहीं हैं। पिछले पांच वर्षों में दिल्ली में सड़कें और सहूलियतें बढ़ी हैं, तो भय-भूख और भ्रष्टाचार का भी बोलबाला रहा है। चमकती सड़कों से पेट नहीं भरता। बच्चे और महिलाएं आज भी असुरक्षित हैं। हर सरकारी महकमे में नियम-कानून की अनदेखी की जाती है। जिन बेटियों के लिए ‘लाडली योजना’ बनाई गई, उन्हीं में अधिकतर इस सुविधा से वंचित हैं। महंगाई से लोग परेशान हैं। आम आदमी यही समझता है कि सूबे की सरकार अगर कानून-व्यवस्था पर सख्त निर्णय ले, तो जरूर सुधार हो सकता है। दिल्ली में प्याज सस्ती बेचनी है तो जमाखोरों और अढ़तियों की नकेल कसनी होगी, लेकिन शीला सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में नाकाम रही। हर बात का ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ती रही।

रही बात भाजपा की, तो इस बात की क्या गारंटी है कि सत्ता में आने के बाद वह सुशासन देगी? मतदाताओं को रिझाने के लिए घर-घर संपर्क करना शुरू कर दिया है, लेकिन पार्टी की आंतरिक लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही है। चुनाव जीतने पर दिल्ली प्रदेश का मुख्यमंत्री पार्टी से कौन होगा, इस पर एकराय नहीं बन पा रही है। मदन लाल खुराना के बाद प्रदेश भाजपा में ऐसा कोई सर्वमान्य नेता नहीं है, जिसके नेतृत्व में पार्टी के वरिष्ठ नेता चलने को तैयार हों। गोयल, गुप्ता, शर्मा और हर्षवर्धन सभी अपनी-अपनी गोटी फिट करने में लगे हैं। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के एक नाम तय करने पर भी अंदरखाने की आग बुझी नहीं है। उसी धुंए का असर है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा दिल्ली में सत्ता से दूर रह सकती है।

अब बात करते हैं भ्रष्टाचार जड़ से खत्म करने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल की। भय-भूख और भ्रष्टाचार से परेशान गरीबों-मजलूमों और मजदूरों का एक बड़ा तबका जरूर उनके साथ है। दिल्ली के ऑटो चालकों ने भी बहुत उम्मीद लगा रखी है। कोठी और बंगलों में रहने वाले कुछ लोगों ने भी इस बार आप को वोट देने का मन बना लिया है, लेकिन ‘कुछ’ से सरकार नहीं बनती। सरकार बनती है बहुमत से... और उस बहुमत से आम आदमी पार्टी का नाता अभी बहुत कमजोर है। अन्ना से अलग होने के बाद अरविंद केजरीवाल में अब वह दमखम लोग नहीं देख रहे हैं जो पहले नजर आता था। टिकट के बंटवारे में भी पार्टी के नियमों की अनदेखी करने का आरोप है। लोग कहते हैं कि अरविंद सत्ता की लालच में लोकपाल भूल गए। इन्हीं सब का नतीजा है कि पार्टी बनाकर सत्ता में आना और फिर व्यवस्था में सुधार करना अरविंद केजरीवाल के लिए अभी सपना ही रहेगा। ऐसे में त्रिशंकु विधानसभा होने के ज्यादा आसार हैं।

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