बुधवार, 3 जुलाई 2013

आत्महत्या के मामले में जबलपुर अव्वल



एक भयावह सच! एक अनचाही और अनपेक्षति मौत! हंसते-खेलते जीवन का त्रासद अंत। चौंकाने वाले आंकड़े और आंकड़ों से उठती चीख! जबलपुर में साल भर में 572 लोगों ने खत्म कर ली जिंदगी। 63 फीसदी का इजाफा! क्यों बढ़ रही है यहां खुद को खत्म करने की खौफनाक प्रवृत्ति?


जितेन्द्र बच्चन
-ओमती थाना के चौथा पुल स्थित माता गुजरी महाविद्यालय के छात्रावास में बीएससी द्वितीय वर्ष की छात्रा जेसिका केल्स ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। इसी थाने के होटल अरिहंत में ठहरी युवती मनीषा दास (31) ने आत्महत्या कर लिया।
-मझौली थाना क्षेत्र में एक महिला ने दांत दर्द से निजात पाने के लिए आत्मदाह कर लिया।
-गढ़ा थाना क्षेत्र के बदनपुर निवासी महारानी लक्ष्मी कन्याशाला की 12वीं की छात्रा गायत्री कोल (17) ने खुद पर कैरोसिन डालकर आग लगा ली।
-साइंस कॉलेज के चौकीदार ने फांसी लगाकर जान दे दी।
-केंद्रीय कारागार जबलपुर में एक कैदी ने चादर को फंदा बनाकर आत्महत्या कर ली।

ये घटनाएं रोंगटे खड़ी करने वाली हैं। फांसी, जहर, आग और भी न जाने क्या-क्या नए-पुराने तरीके जबलपुर में मौत को गले लगाने के लिए आजमाएं जा रहे हैं। खुदकुशी की खबरों की जिले में बाढ़-सी आ गई है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जब कहीं न कहीं से आत्महत्या की खबर न मिलती हो। शहर ही नहीं, गांव और कस्बों में भी लोग अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए खुदकुशी का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है। देश के 53 प्रमुख शहरों में आत्महत्या के मामले में जबलपुर सबसे आगे है। वर्ष 2012 में यहां 572 लोगों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। जबकि 2011 में 351 लोगों ने आत्महत्या की थी। यानी 63 फीसदी का इजाफा। कारण आर्थिक तंगी, बीमारी, कर्ज का बढ़ता बोझ, एकल परिवार और हताशा है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन ये घटनाएं सोचने को मजबूर करती हैं कि कहीं हमारा सामाजिक ताना-बाना बिखर तो नहीं गया? क्या इनके लिए उम्मीद की छोटी-सी लौ भी नहीं बची थी कि इतने लोगों ने जिंदगी से इस तरह मुंह मोड़ लिया?

दरअसल, जीवन के बदले तौर-तरीकों ने भी बच्चों और युवाओं में सहनशीलता कम कर दी है। अभिभावकों ने कहीं जाने से रोका या कभी पैसे देने से इंकार कर दिया या फिर उनकी किसी मांग को पूरा करने में असमर्थता जताई, तो अक्सर ऐसे बच्चे गुस्से में आत्महत्या जैसे भयानक कदम उठा लेते हैं। इस मामले में प्रेमी भी पीछे नहीं रहते। प्रेमी या प्रेमिका ने ठुकरा दिया या धोखा दिया, तो इसका समाधान अक्सर वे जीवन से मुंह मोड़ने में ही पाते हैं। सोचने की बात तो यह है कि आत्महत्या एक इंसान की नहीं होती, बल्कि उसके साथ जुड़े परिवार की भी होती है जो जीते जी मर जाते हैं। मौत को गले लगाने से कोई समस्या नहीं सुलझती, बल्कि अचानक कुदरत का नियम तोड़ने से हो सकता है कि आप और आपका परिवार पहले से अधिक अंजानी और अजीब समस्याओं के भवरजाल में उलझ जाए। जरूरत है सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से जूझते महिलाओं और बच्चों को एक सही दिशा की। क्योंकि कानून बनाना ही काफी नहीं, संवेदनशीलता का होना भी जरूरी है। 
विलुप्त हो रही सहनशक्ति
भारतीय मानस पहले इतना कमजोर कभी नहीं था, जितना अब दिखाई पड़ रहा है। कम सुविधा व सीमति संसाधन में भी संतोष और सुख से रहने का गुण इस देश की संस्कृति में रचा-बसा है। इसका सबसे बड़ा आधार हमारी आध्यात्मिकता रही है। आम भारतीय की सोच ईश्वर में विश्वास कर हर परिस्थिति में हिम्मत और धैर्य रखने की है। जैसे-जैसे लक्जरी ने जरूरतों का रूप धारण करना आरंभ किया है। आर्थिक उदारीकरण और टेक्नोलॉजी ने चारों दिशाओं में पंख पसारे हैं, वैसे-वैसे तेजी से एकसाथ सब कुछ हासिल करने की लालसा भी तीव्रतर हुई है। साधन और सुविधा पर सबका समान हक है, मगर उस हक को पाने में क्यों कुछ लोगों को सबकुछ दांव पर लगा देना पड़ता है और क्यों कुछ लोगों के लिए वह मात्र इशारों पर हाजिर है? जीवन स्तर की यह असमानता ही सोच और व्यक्तित्व को कुंठित बना रही है। जबकि सोच की दिशा यह होनी चाहिए कि मेहनत और लगन से सबकुछ हासिल करना संभव है, बशर्ते धैर्य बना रहे। लेकिन विडंबना यह है कि समय के साथ सहनशिक्त और समझदारी विलुप्त हो रही है। 
बेमानी लगते हैं नाते-रिश्ते
बदलते दौर में टीवी-संस्कृति ने परस्पर संवाद को कमतर किया है। परिणामस्वरूप माता-पिता के पास बच्चों से बात करने का समय नहीं बचा है। यह स्थिति दोनों तरफ है। आज का किशोर और युवा भी व्यस्तता से त्रस्त है। कंप्यूटर-टीवी ने खेल संस्कृति को डसा है। आउटडोर गेम्स के नाम पर बस क्रि केट बचा है। टीम भवना विकिसत करने वाले, शरीर में स्फूर्ति प्रदान करने वाले और खुशी-उत्साह बढ़ाने वाले खेल अब विलुप्त हो रहे हैं। यही वजह है कि न बाहरी रिश्तों में सुकून है न घर के रिश्तों में शांति। दोस्ती और संबंधों का सुगठित ताना-बाना अब उलझता नजर आ रहा है। कल तक जो संबल और सहारा हुआ करते थे, वे आज बोझ और बेमानी लगने लगे हैं।
अपने आपमें सिमटते युवा
देश की युवा शक्ति आज के हांफते-भागते दौर में अस्त-व्यस्त और त्रस्त है या फिर अपनी ही दुनिया में मस्त है। आत्मकेंद्रित युवा अपने सिवा किसी को देख ही नहीं रहा है। जब उसे पता ही नहीं है कि दुनिया में उससे अधिक दुखी और लाचार भी हैं, तो वह अपने दुख-तकलीफों को ही बहुत बड़ा मान लेता है। घर आने पर कोई उससे यह पूछने वाला नहीं है कि उसके भीतर क्या चल रहा है। हर कोई टीवी की तरह   अपनी दिनचर्या निर्धारित करने में लगा है। किसे फुरसत है अपने ही आसपास टूटते-बिखरते अपने ही घर के युवाओं को जानने-समझने की। उनकी भावनात्मक जरूरतों और वैचारिक दिशाओं की जांच-पड़ताल करने की? ऐसे में एक दिन जब वह आत्मघाती कदम उठा लेता है, तो पता चलता है कि ऊपर से शांत और समझदार दिखने वाला युवा भीतर कितना आंधी-तूफान लिए जी रहा था। वास्तव में माता-पिता को समय के साथ बदलना होगा। कब तक सारी की सारी अपेक्षाएं संतान से ही की जाती रहेंगी। ढेर सारे सामाजिक दबाव, सारी जिम्मेदारियां उसी की क्यों? सारे समझौते वही क्यों करें? दबाव की इस स्थिति को मां-बाप, निकट के रिश्तेदार और मित्र ही अगर चाहें, तो बड़ी कुशलता से निपटा सकते हैं।
जिंदगी से बड़ी कोई तकलीफ नहीं
समाधान कहीं और से नहीं हमारे ही भीतर से आएगा। खुद को खत्म कर देने की बात जब आती है, तो दूसरों को दोष देने में थोड़ा संकोच होता है। वास्तव में हम स्वयं ही हमारे लिए जिम्मेदार होते हैं। कोई भी दु:ख या तकलीफ जिंदगी से बड़ी नहीं हो सकती। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा दौर आता है जब सबकुछ समाप्त-सा लगने लगता है, लेकिन इसका यही तो सार नहीं कि खुद ही खत्म हो जाएं। हर आत्महत्या करने वाले को एक बार, सिर्फ एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या उसकी जिंदगी सिर्फ उसी की है? इस जिंदगी पर कितने लोगों का कितना-कितना अधिकार है? क्या वह जानता है कि उसकी मौत के बाद उसका परिवार कितनी-कितनी बार मरेगा? जिस पर इतने सारे लोगों का हक है, उसे खत्म करने का हमें कोई हक नहीं है। वैसे भी रोशनी की एक महीन लकीर जब अंधेरे को चीर सकती है। एक तिनका डूबते का सहारा बन सकता है और एक आशा भरी मुस्कान निराशा के दलदल से बाहर निकाल सकती है, तो फिर भला मौत को वक्त से पहले क्यों बुलाया जाए? जिंदगी परीक्षा लेती है तो उसे लेने दीजिए, हौसलों से आप हर बाजी जीतने का दम रखते हैं, यह विश्वास हर मन में होना चाहिए।
10 हजार 861 किसानों ने लगाया मौत को गले
भाजपा के आठ साल के शासन में 10 हजार 861 से अधिक किसानों ने की खुदकुशी। देश के किसानों की आत्महत्या के मामले में मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर पहुंच गया है। किसी भी सरकार के लिए इससे अधिक शर्मनाक कुछ और नहीं हो सकता है कि उसके नागरिक राज्य की नीतियों के कारण आत्महत्या को मजबूर हों। मध्य प्रदेश की सरकार ‘थोथा चना बाजे घना’ की तर्ज पर राज कर रही है। राज्य अब दूसरा विदर्भ बनने के कगार पर है। मुख्य वजह किसानों की आर्थिक तंगी, कर्ज का बढ़ता बोझ और परिवार है। रोजगार के सीमित साधन,बढ़ती महंगाई,घटती आय लोगों का सुख-चैन छीन रहे हैं। ऐसे में बढ़ती महत्वकांक्षाएं, पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भारी साबित हो रही है। ये तमाम हालात व्यक्ति को तनाव व अवासादग्रस्त बनाते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में हर रोज 18 लोग आत्मघाती कदम उठा कर मौत को गले लगा रहे हैं। बीते साढेÞ चार माह में 2541 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं, जिनमें 205 किसान व 95 खेतिहर मजदूर हैं। राज्य विधानसभा के मौजूदा पावस सत्र में कांग्रेस विधायक राम निवास रावत के सवाल के जवाब में गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने समाज की इस हकीकत का बयान करते हुए कहा कि एक मार्च 2012 से 15 जुलाई तक राज्य में 2541 लोगों ने आत्महत्याएं की हैं। इस तरह 135 दिनों में हर रोज औसतन 18 लोगों ने मौत को गले लगाया है। गृहमंत्री के जवाब के मुताबिक, इस अवधि में सागर जिले में सबसे ज्यादा 172 लोगों ने मौत को गले लगाया। दूसरे स्थान पर इंदौर है, जहां 158 लोगों ने जान दी। सतना में 153, भापाल में 130 और जबलपुर में 113 आत्महत्या के प्रकरण सामने आए हैं।
खतरनाक रूप से बढ़ रही इस नकारात्मकता ने अचानक सभी को चिंता में डाल दिया है। आखिर क्यों बढ़ रही है खुद को खत्म करने की यह खौफनाक प्रवृत्ति? क्यों होती जा रही है स्थिति विकराल? किसानों के मामले में समस्याएं बेहद स्पष्ट लेकिन ढेर सारी हैं। यूं तो परेशानी और पीड़ा की वजह गरीबी अपने आप में एक अहम वजह है, लेकिन आए दिन किसानों को फसल चौपट होने से लेकर कर्ज न चुका पाने जैसी भीषण दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कभी योजनाओं के नाम पर सरकारी छल-कपट के शिकार होते हैं किसान, तो कभी अनाज के खरीद-बिबिक्री में हुए घोटालों के कारण व्यथित होते हैं। ऐसे में उन्हें एक ही रास्ता आसान लगता है- मौत का।
मध्य प्रदेश के हर किसान पर औसतन 14 हजार 218 रु पये का कर्ज है। वहीं प्रदेश में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या 32,11,000 है। म.प्र. के कर्जदार किसानों में 23 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है और 4 हेक्टेयर भूमि वाले कृषकों पर 23,456 रु पये कर्ज चढ़ा हुआ है। कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि प्रदेश के 50 फीसदी से अधिक किसानों पर संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है। किसानों के कर्ज का यह प्रतिशत सरकारी आंकड़ों के अनुसार है, जबकि किसान नाते-रिश्तेदारों, व्यवसायिक साहूकारों, व्यापारियों और नौकरीपेशा से भी कर्ज लेते हैं। इस आधार पर राज्य के 80 से 90 फीसदी किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि समर्थन मूल्य मूल उत्पादन की औसत लागत से 50 फीसदी अधिक होना चाहिए। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के किसानों से 50 हजार रुपये कर्ज माफी का वादा किया था, लेकिन प्रदेश सरकार ने उसे भुला दिया। यदि समय रहते खेती-किसान दोनों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले समय में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं और बढेंÞगी और मध्य प्रदेश भी विदर्भ की तरह मुंह ताकता रह जाएगा।

खुदकुशी पर सियासत नहीं होनी चाहिए 
आत्महत्या किसी की भी हो, तकलीफदेह होती है। यह एक प्रदेश की समस्या नहीं है। जापान, कोरिया सहित देश के अन्य प्रांतों में भी इस तरह की घटनाएं होती हैं। कुछ राज्यों में तो इसके आंकडेÞ यहां से ज्यादा हैं। इस विषय को राजनीतिक रूप देने की कोशिश की जा रही है, जो ठीक नहीं है। आत्महत्या के कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं। उन्हें दूर करने के प्रयत्न किए जाएंगे।
-शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री

मुख्य कारण पारिवारिक कलह
जबलपुर में इधर हुई अधिकतर आत्महत्याओं की खास वजह पारिवारिक कलह रही है। दरअसल, संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। पति-पत्नी के बीच विवाद होने पर उनमें बीच-बचाव करने वाला कोई नहीं होता। कलह बढ़ते ही लोग खुदकुशी करने तक के लिए तैयार हो जाते हैं। दूसरा कारण एकल परिवार है, जिसके चलते लोग खुदकुशी करने को मजबूर हो जाते हैं।
-हरिनारायणचारी मिश्र, पुलिस अधीक्षक, जबलपुर

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